Book Title: Raichandra Jain Shastra Mala Syadwad Manjiri
Author(s): Paramshrut Prabhavak Mandal
Publisher: Paramshrut Prabhavak Mandal

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Page 13
________________ है आदिमें जिसके ऐसी वैरियोंकी मंडलीको क्षणमात्रमें परास्त की. अर्थात् जीती. वे श्रीवर्धमानस्वामी मेरी बुद्धिको निर्मल करै ॥१॥ * समस्त मध्यलोकवर्ती जीवोंके पुण्यके समूहकी प्रेरणासे अपार प्रतिभा ( नये नये चमत्कारोंको उत्पन्न करनेवाली बुद्धि ) रूप X|| प्राणोंके धारक सरखती और बृहस्पतिजीको अपने शरीरसे अभिन्नरूपमें धारण करते हुए जिन्होंने निज शरीररूप दृष्टान्तसे || स्याद्वादमतको सिद्ध किया अर्थात् जैसे मेरा शरीर परस्पर भिन्न ऐसे सरखती और बृहस्पतिको एक रूपतासे धारण करता उसी प्रकार समस्त पदार्थ परस्पर भिन्न अनेक धर्मोके धारक है; ऐसे अपने शरीरसे सूचित किया; वे श्रीहेमचन्द्रस्वामी मेरे सम्यग्ज्ञानरूपी समुद्रकी वृद्धिके अर्थ होवें ॥२॥ जो मनुष्य श्रीहेमचन्द्र मुनीन्द्रको इनके ( श्रीहेमचन्द्रजीके ) द्वारा कहे हुए शास्त्रोंके अर्थकी सेवाके बहानेसे सेवन करते है, वे जगत्में निर्मल कलाओंके गौरवको ( वड़प्पनको ) प्राप्त हो करके योग्य पदको प्राप्त होते है । भावार्थ-जो श्रीहेमचन्द्रजी सूरीश्वरकी सेवा करते है, वे महाबुद्धिमान् होकर सुगतिको प्राप्त होते है ॥ ३॥ हे सरखती माताजी ! आप मेरे हृदयमें विराजमान इजिये, जिससे सर्वज्ञकी स्तुतिपर विवृति ( व्याख्या ) रचनेके अर्थ जो प्रारंभ करनेकी संभावना है, वह शीघ्र ही सिद्ध होवै अर्थात् शीघ्र ही स्याद्वादमंजरीको रचनेका प्रारंभ कर दूं । अथवा नहीं नहीं | मैं भूल गया क्योंकि, मेरे होठोंके मध्यमें रात्रिदिन" श्रीउदयप्रभ" इन अक्षरोंकी रचनासे मनोहर गुरुका नामरूपी अनादि अनिधन सारखतमन्त्र तो फुर ही रहा है । भावार्थ-गुरुके स्मरणके प्रभावसे आप स्वयं मेरे हृदयमें विराजमान हो जायगे । अतः आपसे प्रार्थना करनेकी कोई आवश्यकता नहीं है ॥ ४ ॥ (अवतरणिका) इह हि विषमदुःषमाररजनितिरस्कारभास्करानुकारिणा वसुधातलावतीर्णसुधासारिणीदेश्यदेशनावितानपरमाईतीकृतश्रीकुमारपालक्ष्मापालप्रवर्त्तिताभयदानाभिधानजीवातुसंजीवितनानाजीवप्रदत्ताशीर्वादमाहात्म्यकल्पाsवधिस्थायिविशदयशःशरीरेण निरवद्यचातुर्विद्यनिर्माणैकब्रह्मणा श्रीहेमचन्द्रसूरिणा जगत्प्रसिद्धश्रीसिद्धसेनदिवा(१)ख-पुस्तके 'स्थिरीकृत' इति पाठः । २ लक्षणागमसाहित्यतर्काश्चातुर्विद्यम् ।

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