Book Title: Prastavik Duha Sangrah
Author(s): Manivijay
Publisher: Devchand Dalichand

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Page 6
________________ Scanned by CamScanner प्रस्ताविक संग्रहः कच्चा पारा ब्रह्म अंस, शिव निर्माल्य जो खाय । गुरु कहरे बापडा, जडा मूळसे जाय ॥ ३८॥ कंचन तजयो सेल छे, परनारीनो स्नेह । पर निंदा पर इा, दुर्लभ तजवा तेह ॥ ३९॥ कबीर कहे कमाल कु, दो बाता शीखले । कर साहेब की बंदगी, भूख्या कु कुच्छ दे ॥४०॥ करक्त कातर दुर्जन, ए मेरी जूदु करंत । सुइ सुहागो सुजन, ए भांग्याने सांधत ॥४१॥ कवण केरा हाथी तुरंगम, कवण केरी नारी । माहे मूहियो मूढो जपे, म्ह आ मारी मारी ॥१२॥ कर भक्ति किरतारनी, कर परमारथ काम । कर मुकृत जगमें सदा, रहे अविचल नाम ॥४३॥ कक्षु न नीपजे एकथो, फोगट मन फूलाय । कमाडने तालु मली, घरनुं रक्षण थाय ॥ ४४ ॥ कहेना हे सो कह दीग, अब क्या बजावू ढोल । एक श्वासमां जात हे, तीन लोक का मोल ॥४५॥ करम विनाना करसनीया, कोनी जाने जाइश । करममां लखी राबडी तो, लाडु क्याथी खाइस ॥ ४६॥ कन्या काय कुमारीघणी, कृषण लच्छी वाचे शाभणी। वाडी तात कहो केम करे, त्रणे उत्तर धो एक अक्षरे (उत्तर-नवरी) काजळ तजे न शामता, मोती तजे न श्वेत । दुर्जन तजे न कुटिलता, सज्जन तजे न हेत ॥४८॥ काला कुशल न पूछीये, नीत नीत हाण विहाण । इक्के के वासर गळे, आयु नवले भाण ॥४९॥ कातर सम दुर्जन कह्या, सज्जन सोय समान । कातर काषी जुदा करे, सोय करे संधान ॥५०॥ कार्तिक मासके कुतरे, तजे अन्न और प्यास । तुलसी वांकी क्या गति, जीसके बारे मास ॥५१॥ काने सुण्यो न मानीये, आंखे दीढुं सच्च । भांग्या कदी न सांधीये, मन मोती वळी कच ॥ ५२ ॥

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