Book Title: Prastavik Duha Sangrah
Author(s): Manivijay
Publisher: Devchand Dalichand
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मस्ताविक
सग्रह
॥१३॥
क्रोधी नरने दूरथी, करीये सदा प्रणाम । जे अडके जइ अग्निने, दाखे दलपतराम ॥ ३३८ ॥ क्रोधी जनने आशरे, करीये नहि विश्वास । ज्यां वावल ने बोरडी, रहो न दलपतराम ॥ ३४१ ॥ करीये चर्चा ज्ञाननी, अति उमंग धरी उर । पकडे रूप लडाइ, देखी खसीये दर ॥ ३४॥ साधु शब्दमां परखीये, विपत पडे घरनार । शूरा जब ही परखीये, जब नीकले तरवार ।। ३४१॥ कूप पडी मखु भलु, पीनु भलु विषपान । अनेक दुःखनी आपदा, नहि व्यभिचार समान ॥ ३४२ ॥ दुर्जन मुखमां दुर्वचन, सज्जन मुख मीठाश । सज्जन दुर्जन संगयी, लहे अधिक कडवाश ॥ ३४३॥ दुष्ट वजे नहि दुष्टता, कदी करीये सत्कार । नित्य दुध पाओ नागने, पण करडे कोइ वार ॥ ३४४ ॥ वाघ वेश्या ने वाणियो, व्याध वमुघापाल । मित्र नहि ए कोइना, काम सरे विकराल ॥ ३४५ ॥ नीरथी पाप टले नहि, जो मन मेल न जाय । खाल कुंडीनुं हांडलं, धोये उपर शुं थाय ॥ ३४६॥ लाम न दीसे लेश तो, रहे कुटे शृं थाय । दमनी पीडा पामीये, कांतो आंखो जाय ॥ ३४७॥ पीत विहां पडदो नहि, पडदो त्यां नहि पीत । प्रीत करी पडदो करे, ए नहि सजन रीत ॥ ३४८॥ आळस मुंडी भूतडी, व्यंतरनो बलगाड । पेसे जेना पंडमां, बहुधा करे बगाड ॥ ३४९॥ एक घडी आधि घडी, आधिौ पण आध । तुलसी संगत साधुकी, कटत कोटी अपराध ॥ ३५० ॥ क्षणभंगुर आ देहनो करवो शो विश्वास । पळमां काळ करे घणो, काया केरो नाश ॥ ३५१ ॥ चडती पडती सर्वनी, ए दुनियानी रीत । चंद्रकला शुदमां वधी, वदमां घटे खचित ॥ ३५२॥

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