Book Title: Prastavik Duha Sangrah
Author(s): Manivijay
Publisher: Devchand Dalichand

View full book text
Previous | Next

Page 33
________________ Scanned by CamScanner दुस्खयां तो धीरज रहे, मुखमा मद नवि थाय । या मंत्र नपाक्षरी, आपण दिन वही जाय ॥ ४४३॥ अवसर परण निकटणो, जब जाणे चुध लोय । तब विशेष साधन करे, सावधान अति होष । ४४४ ॥ धर्म अर्थ अरु काम शिव, साधन जगमें चार । व्यवहारे व्यवहार लख, निचे निज गुणधार ॥४४५॥ मूर्खकूल आचारथी, जाणे न धर्म सदीव । वस्तु स्वभाव धर्म सुधी, कहत अनुभवी जीव ॥ ४४६ ॥ खेह खजाकुं अरथ, कहत अज्ञानी जेह । कहत द्रव्य दरसावकुं, अर्थ मुबानी तेह ॥ ४४७॥ दंपती रति क्रीडा प्रत्ये, कहत दुरमति काम । काम चित्त अभिलाखकुं, कहत सुमति गुणधाम ॥ ४४८ ॥ इह लोककुं कहत शिव, जे आगम इग हीण । बंध अभाव अचल गति, भाखत नित्य प्रवीण ॥ ४४९ ॥ एम अध्यातम पद लखी, करत साधना जेह । चिदानंद जिन धर्मनो, अनुभव पावे तेह ॥ ४५० ॥ समय मात्र प्रमाद तज, धर्म साधना मांय । अथिर रूप संसार लख, रे नर कहीये ज्यांह ॥ ४५१ ॥ छिजत छिन्न छिन्न आउखो, अंजली जल ज्यू मीत । काल चक्र माथे भमत, सोबत कहा अभीत ॥ ४५२॥ तन धन जोबन कारमा, संजाराग समान । सकल पदारथ जगतमें, सुपन रूप चित्त जान ॥ ४५३ ॥ मेरा मेरा क्या करे, तेरा हे नहि कोय । चिदानंद परिवासा, मेला हे दिन दोय ॥ ४५४॥ एसा भाव निहारतां, कीजे ज्ञान विचार । मिटे न ज्ञान विचार विण, अंतर राग विचार ॥ ४५५ ॥ ज्ञान रवि वैराग्य जस, हिरदे चंद समान । तास निकट कहो केम रहे, मिथ्या तम दुःख खाण ॥ १५६ ॥ आप आपके रूपमें, माणत ममत मल खोय । नित्य रहे समता रसि, तास बंध नवि कोय ॥ ४५७ ॥

Loading...

Page Navigation
1 ... 31 32 33 34 35 36 37 38 39 40 41 42 43 44 45 46 47 48 49 50 51 52 53 54