Book Title: Prastavik Duha Sangrah
Author(s): Manivijay
Publisher: Devchand Dalichand
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श्री प्रस्ताविक
दुहा संग्रह:
॥ १७ ॥
परपरणति पर संगनुं, उपजत बिनसत जीव । मिथ्या मोह पर भावको, अचल अभ्यास सदिव ।। ४५८ ॥ जेसे कंचुकी त्यागसें, विनसत नहि भुजंग । देह त्यागथी जीव पण, तेसे रहत अभंग ॥ ४५९ ॥ जो उपजे सोतुं नहि, विनसे ते पण नांहि । छोटा मोटा तुं नहि, समज देख दिल मांही ॥ ४६० ॥ वरण बांखतो मे नहि, जात पातकुल रेख । राव रंक तुंही नही, नहि बाबा नहि भेख ॥ ४६१ ॥ तुं सौमे सौथी सदा, न्यारा अलख सरूप । अकथ कथा तेरी महा, चिदानंद चिद रूप ॥ ४६२ ॥ जनम मरण जिहां है नहि, इतभीत लवलेश । नहि शिर आणा नरिंदकी, सोही आपणा देश ॥ ४६३ ॥ विनाशिक पुद्गल दशा, अविनाशी तुम आप। आप आप विचारतां, मिटे पुन्य अरु पाप ॥ ४६४ ॥ बेडी लोह कनकमयी, पाप पुन्य जग जाण । दोय थकी न्यारा भला, निज स्वरूप पहिछान ॥ ४६५ ॥ जुगल गति शुभ पुन्यथी, इतर पापथी जोय । चारो गति निवारीए, तब पंचमी गति होय ॥ ४६६ ॥ पंचमी गति बिन जीवकुं, सुख तिहुं लोक मोजार । चिदानंद नवि जाणजो, एह मोटो निरधार ॥ ४६७ ॥ एह विचार हिरदे करत, ज्ञान ध्यान रस लीन । निर विकल्प रस अनुभवे, विकलपता होय छिम ॥ ४६८ निर विकल्प उपयोगमें, रहे समाधि रूप । अचल ज्योत जलके विहां, पावे दर्श अनूप ॥ ४६९ ॥ देख दर्श अद्भूत महा, काल त्रास मिट जाय । ज्ञान जोग उत्तम दशा, सद्गुरु एह बताय ॥ ४७० ॥ ज्ञानालंबन प्रौढ ग्रही, निरालंबता भाव । चिदानंद नित्य कीजीये, एही ज मोक्ष उपाय ॥ ४७१ ॥ थोडा सामे जाणजो, कारज रूप विचार । कहत सुनत कछु ज्ञानको, कबू न आवे पार ॥ ४७२ ॥
॥ १७ ॥
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