Book Title: Prastavik Duha Sangrah
Author(s): Manivijay
Publisher: Devchand Dalichand

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Page 32
________________ प्रस्ताबिक दुहा संग्रहः ॥ १६ ॥ समता सम सुख को नहि, एम भांखे भगवंत । भरतादिक भवमल वर्मा, समता चिच घरंत ॥ ४९८ ॥ अनंत सीर्येकर कहे, रागद्वेष भव मूल । रागद्वेषने जीतना, समता के अनुकूल ॥ ४२९ ॥ आभव सेवी आतमा, पामे दुःख समुदाय । वीतराग पूजा बिना, चउ गति गोषां खाय ॥ ४३० ॥ राज्य रमा दुर्लभ नहि, दुर्लभ नहि पुर धाम । अति दुर्लभ छे जीवने, बोधि रत्न अभिराम ॥ ४३१ ॥ जन्म जरा मरणे करी, भरीयो आ संसार । जे प्रभु आणा मानशे, तस नहि बीक लगार ॥ ४३२ ॥ श्रुती दुर्मति दुरटले, श्रुतथी जाय विकार । श्रुतथी व्रत संजम पछे, श्रुतयी भवजल पार ॥ ४३३ ॥ ज्ञाने संशय दुरटले, ज्ञाने पाठिक जाय । ज्ञाने निर्मळ आसमा, ज्ञाने शिवसुख धाय ॥ ४३४ ॥ विनय वडो संसारमां, विनय धर्मनो सार । विनये विद्या आवडे, विनये जस विस्तार ।। ४३५ ।। मंत्र फले जग जस मले, दुर्गति दुःख पलाय । ब्रह्मचर्य प्रभावयी, सिंहादिक भय जाय ॥ ४३६ ॥ शालिभद्र धन्नो तथा उत्तन चरित्र कुमार । सुपात्र दान प्रभावयी, पाम्या रिद्धि अपार ॥ ४३७ ॥ जेम गिरिमां सुरगिरिबडो ज्ञानमां केवल ज्ञान । तरुगणमां सुरतरु वडो, दानमां अभय प्रधान ॥ ४३८ ॥ बडा हुवा तो क्या हुवा, बडी लंबी खजूर। पंथीकुं छाया नहि, फल रह गये दूर ॥ ४३९ ॥ मुखे पजण पंजता, क्या कुमरुडी धाइ । पींजण वेचके बंधुक ली, गपके गोळी खाइ ॥ ४४० ॥ विद्या ल्हो वरसा लगी, बुद्धि विण न काम । हेतु समज्या बगरनुं, ए पोपटीयुं ज्ञान ॥ ४४१ ॥ भरवगडामा लुंटता, कोळी ठाकर भील । भर नगरीमां लुंटता, वेश्या वैद वकील ॥ ४४२ ॥ ॥ १६ ॥ Scanned by CamScanner

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