Book Title: Prastavik Duha Sangrah
Author(s): Manivijay
Publisher: Devchand Dalichand

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Page 24
________________ श्री प्रस्ताविक दुहा संग्रह: ॥ १२ ॥ साकर तजे न सरसपणुं, सोमल राजे न जेर। सज्जन तजे न सज्जनता, दुर्जन तज्ञे न बेर ॥ ३०८ ॥ अंधा आगळ आरसी, बहेरा आगळ गीत । मूरख आगळ रस कथा, र त्रणे एकज रीत ॥ ३०९ ॥ संपत देखी नवि राचीये, विपत पढे मत रोय । जिहां संपत विहां विपत है, कर्म करे सो होय ॥ ३१० ॥ कोटी कोटी जोडीने, धनी थाय धनवान । अक्षर अक्षर शीखता, ज्ञानी थाय विद्वान ॥ ३११ ॥ मन मरो माया मरो, मर मर गये शरीर । आशा तृष्णा ना मरी, कह गये दास कबीर ॥ ३१२ ॥ अनुमोदनथी फल बधे, निंदायी घट जाय । सुकृतकी अनुमोदना, पाप निंदामां थाय ॥ ३१३ ॥ गुणवंता गंभीर नर, दयावान दातार । अंतकाल तक न तजे, धैर्य धर्म उपकार ॥ ३१४ ॥ संगत कीजे संतकी, निष्फल कदी न होय । लोहा पारस फरससे, सोभि कंचन होय ॥ ३१५ ॥ मान नहि अपमान नहि, एसे शीतल संत । भवसागर उतर पडे, तोडे जमका दंत ॥ ३१६ ॥ जेसे उबर के जोरसे, भोजन की रुचि जाय । तेसे कुकर्म के उदये, धर्मवचन न सुहाय ॥ ३१७ ॥ बहोत गई थोडी रही, मन मत आकुल होय । धीरज सबको मित्र हे, करी कमाइ मत खोय ॥ ३१८ ॥ विनय वेरीने वश करे, विनयथी बाधे माम । विनय कर्यो कामण कर्यु, विनयबशे आराम ॥ ३१९ ॥ गुण बोले निंदे नहि, ते सोभागी होय । अवगुण बोले पर तणां, ते दुर्भागी होय ॥ ३२० ॥ परनारी विपवेल है, नहि जिसका विश्वास । चाहत मूरख अङ्गनर, तिससे सुख की आश ॥ ३२९ ॥ मन अहंकार मूरख करे, मुजथी सघलु थाय । तेतो जूठु जाणजो, आप कर्मयी खाय ॥ ३२२ ॥ ॥ १२ ॥ Scanned by CamScanner

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