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श्री प्रस्ताविक
दुहा संग्रहः
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श्रावक के कुलपायके, लीवो न प्रभुको नाम, जैसे कुवा जल बिना, हुआ तो कौन से काम ॥ ९८ ॥ छप्पन बखारने भारो कुंची, वेपार थोडो ने नजरो उंची ॥ ९९ ॥
जरा घुतारी धोरणी, धोया देश विदेश । विण पाणी विण साबुये, उजळा कीवा केश ॥ १०० ॥ जणमण चिंते अपणे, मनवंछित पुरीश । दैव भणे रे बापडा, हुं पण अवर करीश ॥ १०१ ॥ जब तूं आया जगतमें, जग इसे तुं रोय । अब करणी ऐसी करो, जगमें इसे न कोय ॥ १०२ ॥ जननी जतो भक्तजन, कां दाता कां सूर । नहि तो रहेजे वांझणी, मत गुमावीश नूर ॥ १०३ ॥ जब लग जोगी जग गुरु, जब लग रहे उदास। जब जोगी आशा करे, तब जोगी जगदास ॥ १०४ ॥ जब लग तेरे पुण्य का, पोहोंच्या नहि करार । तब लग तुज को माफ हे, अवगुण कर हजार ।। १०५ ॥ जानुं जीवाभाइनी जानमां, गावुं बजायुं तानमां । खावुं पीव्रं असमानमां, मुइ रहेवुं मेदानमां (सुतुं जइ स्मशानमां) ॥१०६ ॥ जाके लक्षण शुद्ध है, ताको संग कुसंग | चंदन विष लागे नहि, लिपट रहे भुजंग ॥ १०७ ॥ जीवंत जग जस नहि, जसविना कां जीव । जे जस लइने आथम्या, ते रवि पहेलां उगंत ॥ १०८ ॥
से जीनका मीलना, ताकु क्या हय दूर । पदमिणी रही तलाब में, आकाशे रह्यो सूर ॥ १०९ ॥ जीवन जोबन राजमद, अविचल रहा न कोय। जो दिन जाय सतसंगमें, जीवन का फल सोय ॥ ११० ॥ जीभणीये भलाने, न गुणाने पणजी । न गुणा न होत जो जगतमां, तो भला संभारतकीं ॥ १११ ॥ जुहार जुहार सहु कहे, न जाणे जुहार का भेद । भेद जाण्या विन रहत है आठे महर बहु खेद ॥ ११२ ॥
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