Book Title: Prastavik Duha Sangrah
Author(s): Manivijay
Publisher: Devchand Dalichand
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सस्से सामोलीये, बरे वीजे पान । जबजे जीवने पासीये, वेणे सदा जैन नाम ॥ २६ ॥ सवसायी सह को पीये, मामेज नाय । पाप तणो मागे नहि, भोग भवानी माय ॥ २४ ॥ सहेज मील्या सो दुध परावर, मांग लीया सो पाणी । खेंच बीया सो रगत परावर, गोरख पोख्या वाणी ॥ २६५ ॥ सजन एषा माणीये, जेवा हुवामा कोष । पाये करीने ठेलीये, दोयम आणे रोप ॥ २६६ ॥ सहन इयकी में कही, मोवी म भाथ्यो हाथ । सागर को क्या दोष है, पीन हमारे भाग्य ॥ २६७ ॥ सत्य वचन और दीमता, परनी मात समान । एतेसे स्वर्ग नहि मीले, तो तुलसीदास जमान ॥ २६८ ॥ सत्य वचन बदता थका, पामे यश भरपूर । असत्यथी अते थशे, भूगाइ भरपूर ॥ २६९ ॥ संगत कीजे संतकी, निष्फळ कवी न होय । लोहा पारस फरससे, सोभि कंचन होय ॥ २७० ॥ संत यही परमारथी, मोटो जिनको मन । मृठी भर भर देत , धर्म रूपीयो धन ॥ २७१ ॥ संगत विचारी क्या करे, हृदय भया कठोर । नबनेजा पाणि चरे, पत्थर म मीने कोय ॥ २७२ । सरोबर जल तंबाल मणि, वृक्ष निशा ने नार । भोजन मेघवाहन प्रमुख, एसबी बलमसार । २७३ ॥ सायो बोध सज्जन रचे, दुर्जन देखे भूल । मूरख कधु माने नहि, हायो करे कबूल ॥ २७४ । साजु होय शरीर जो, सघळी वाते सुख । नहि तो माणु बहु छता, दिन दिन प्रत्ये दुस्ख ॥ २७५ ॥ शिर मुंडाये तीन गुण, सीरकी मीट गह खान । खामेक रोटी मीसे, कोक को महाराज । २७६ । सीस घृणावे चम्कीयो, रोमांचित करे देह । विकसित नयन, बदन, सदा, श्रोता रस दीये ह । २७७ ॥

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