Book Title: Prastavik Duha Sangrah
Author(s): Manivijay
Publisher: Devchand Dalichand

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Page 15
________________ Scanned by CamScanner परदेश जमाइ माणेक मूलो, देश जमाइ सोवन तुलो । गाम जमाइ भाखर मूलो, घर जमाइ टावर तुलो ॥१७३॥ परदेशयी आव्या ने मोतीडे वधाव्या । खर्ची खुटी ने, टाणे सिधान्या ॥१७४ ॥ परनरनो पाणी ग्रही, हेते करती हास्य । हवा दवामां दोडती, घरमां गमे न वास ॥ १७५ ।। पप्पासं परच्यो नहि, ददो रह्यो दूर । लल्ला लागी रह्यो, नन्नो रह्यो हजूर ॥ १७६ ॥ पगलु भरता मानवी, पहेला खूब विचार । क्यांची आव्या आपणे, पाछा क्यां फरनार ।। १७७॥ पंडित भये मशालची, बाता करे बनाइ । औरन कु उजारा करे, आप अंधारे जाई ।। १७८ ॥ पापे जे धन मेलीयो, ते धन केम थिर थाय । मेलणहारो मरी गयो, ते धन कोकज खाय ॥ १७९ ॥ पाण सयांहे माछला, सच्चो नेह सुजाण । जब कीजे जळ जुजुआ, तबही छंडे प्राण ॥ १८० ।। पाप छीपाये ना छीपे, छीपे तो मोटे भाग । दावी दुबी ना रहे, रूइ लपेटी आग ।। १८१ ॥ पांख सहित उडे गगन, गंगाजळमां नाय । हंस कहे तोये कीमे, वायस हंस न थाय ॥ १८२ ।। पाणिमां पाषाण, भींजे पण गळे नहि । मृरख आगळ वाण, रीझे पण बुझे नहि ॥ १८३ ॥ प्राकृत भाषा कहत हे, संस्कृत भाषा मूल । मूल रहत हे धूलमें, शाखा ने फळ फूल ॥ १८४ ॥ पीते भले पारेवडा, रूपे भलेरा मोर । पीत करी जे परिहरे, ते माणस नहि पण ढोर ॥ १८५॥ पुन्य पूरा जव होत हे, उदय होय तब पाप । सुके वनकी लाकडी, प्रजळे आपो आप॥१८६ ॥ पुत्ता मित्ता होइ अनेरा, कवण केरी नारी । नरके जाता कोइ न राखे, हैये जो जो विचारी ॥१८७ ॥

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