Book Title: Pranav Gita Part 01
Author(s): Gyanendranath Mukhopadhyaya
Publisher: Ramendranath Mukhopadhyaya

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Page 14
________________ गीता परिचय . जाता है कि नहीं, ऐसा नहीं; यह स्वाभाविक व्यापार-मानव प्रकृतिका अंग है। किसी कर्म करनेके प्रारम्भमें मन स्वभावतः पार्श्ववत्तीं और आनुषंगिक व्यापार और अवस्थाके वश विशेष प्रकारसे चालित होता है। जैसे कि किसी पवित्र देवस्थानमें किसी दुष्कर्मका अनुष्ठान करनेके लिये उचत होनेसे उस पवित्र स्थानके माहात्म्यसे मन स्वभावतः एक मुहूर्त्तके लिये भी अनुष्ठेय कर्मका दोष गुण विचार करनेमें प्रवृत्त होता है, यहां पर भी ठीक उसी प्रकार है। अर्जुन युद्ध में प्रवृत्त हुये सही, परन्तु जिस क्षेत्रमें उनके ख्यातनामा पूर्वपुरुषगण अनेक प्रकारके धर्म कार्यका अनुष्ठान कर गये, जिसकी गौरवस्मृति उनके हृदयमें सर्वदा जागरूक है, उसी क्षेत्रमें पदार्पण करके यागयज्ञादि न करके खजन और ज्ञाति नाशक कार्य में प्रवृत्त होनेसे क्या उनके मनमें कुछ भी द्विधा भावका उदय होना सम्भव पर नहीं है ? विशेषतः जिस कर्मका परिणाम अतीव भयावह और जीवन मंशयकर है, वैसा कठिन कार्य में प्रवृत्त होनेसे साधारणतः मन अतीव तीव्र उद्बोगसे आक्रान्त और संशय युक्त होकर क्षणकालके निमित्त भी कर्त्तव्याकर्त्तव्य विचारमें "मैं-मेरा" के स्वरूप-निर्णयमें स्वभावतः नियुक्त होता है। अजुनकी भी उसी प्रकार अवस्था हुई थी। इन सब संशयों की मीमांसा करना ज्ञानका विषय है, परन्तु योग बिना ज्ञान नहीं होता, फिर ज्ञान बिना योग मी नहीं ठहरता; यह दोनों परस्पर सापेक्ष पदार्थ हैं। अतएव ऐसी अवस्थामें युद्धक्षेत्र में योगका उपदेश असम्भव नहीं है। .. और एक बात है। कोई ऐसा भी कह सकते हैं कि, यदि गीता इतिहास और अध्यात्मशास्त्र दोनों ही हो, तौभी.गीताका ऐतिहासिक व्यक्तियोंको मानवचित्तके विविध प्रकार वृत्तियोंका नाम स्वरूप गण्य करना क्या कष्ट-कल्पना नहीं है १ . इस कारण गीता अवश्य कवि कल्पना रूपक मात्र है, इतिहासके साथ वास्तवमें इसका कुछ सम्बन्ध

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