Book Title: Pramey Kamal Marttandsara
Author(s): Anekant Jain
Publisher: Bharatiya Gyanpith

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Page 14
________________ (xill) में जो 12 सूत्र हैं उनमें बारहवाँ सूत्र इस प्रकार है सावरणत्वे करणजन्यत्वे च प्रतिबन्धसम्भवात्। प्रमेयकमलमार्तण्ड में यह सूत्र नहीं है, फिर भी सूत्रों की संख्या 12 ही बनी रही। इसका कारण यह है कि अतज्जन्यमपि तत्प्रकाशकं प्रदीपवत् (सूत्र- 8) इस आठवें सूत्र को तोड़कर इसके दो सूत्र बना दिये हैं। 'अतज्जन्यमपि तत्प्रकाशकम्' यह आठवाँ सूत्र है और 'प्रदीपवत्' यह नौवाँ सूत्र है। परीक्षामुख में चतुर्थ परिच्छेद में कुल 9 सूत्र हैं किन्तु प्रमेयकमलमार्त्तण्ड में इनकी संख्या 10 बना दी गई है। यहाँ भी सामान्यं द्वेधा तिर्यगूर्ध्वताभेदात् ॥3॥ इस तीसरे सूत्र को तोड़कर इसके स्थान में दो सूत्र बना दिये गये हैं। 'सामान्यं द्वेधा' यह तीसरा सूत्र है और 'तिर्यगूर्ध्वताभेदात्' यह चौथा सूत्र है। परीक्षामुख में पंचम परिच्छेद में 3 सूत्र हैं प्रमेयकमलमार्तण्ड में इनको चतुर्थ परिच्छेद में मिला दिया है। इस प्रकार चतुर्थ परिच्छेद के सूत्रों की संख्या 9 के स्थान में 13 हो गई है। परीक्षामुख में छठवें परिच्छेद में 74 सूत्र हैं। इनमें से प्रमेवकमलमार्त्तण्ड में 73 सूत्रों का पंचम परिच्छेद बनाया गया है और केवल सूत्र का छठा परिच्छेद बनाया गया है। एक अन्य प्रकरण भी चिन्तन योग्य है कि तृतीय परिच्छेद में सूत्रों की संख्या 101 है। यहाँ सूत्रकार ने प्रत्यभिज्ञान का स्वरूप और उसके भेद एक ही सूत्र संख्या 5 में बतलाये हैं किन्तु परीक्षामुख के प्रचलित पाठ में प्रत्यभिज्ञान के 5 भेदों के 5 उदाहरण 5 सूत्रों में मिलते हैं। डॉ. उदयचन्द्र जी के विचार से प्रत्यभिज्ञान के 5 भेदों के 5 उदाहरण भी एक ही सूत्र संख्या 6 में होना चाहिए थे। इस प्रकार 4 सूत्रों की संख्या कम होकर तृतीय परिच्छेद की सूत्र संख्या 97 रह जाती है। इस बात की पुष्टि आज से 200 वर्ष पूर्व श्री पं. जयचन्द जी छावड़ा द्वारा लिखित प्रमेयरत्नमाला की हिन्दी भाषा वचनिका से भी होती है। हिन्दी

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