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प्रस्तावना
न्यायमञ्जरी ( पृ० १२० ) में उद्धृत 'यत्नेनानुमितोऽप्यर्थः ' इस पद्यको टिप्पणी में 'भामती' टीकाका लिख दिया है । पर वस्तुतः यह पद्य वाक्यपदीय ( १ - ३४ ) का है और न्यायमञ्जरी की तरह भामती टीका में भी उद्धृत ही है, मूलका नहीं है।
न्यायसूत्रके प्रत्यक्ष-लक्षणसूत्र ( १-१-४ ) की व्याख्या में वाचस्पति मिश्र लिखते हैं कि-' व्यवसायात्मक' पदसे सविकल्पक प्रत्यक्षका ग्रहण करना चाहिये तथा 'अव्यपदेश्य' पदसे निर्विकल्पक ज्ञानका । संशयज्ञानका निराकरण तो 'अव्यभिचारी' पदसे हो ही जाता है, इसलिये संशयज्ञानका निराकरण करना 'व्यवसायात्मक' पदका मुख्य कार्य नहीं है । यह बात मैं 'गुरून्नीत मार्ग' का अनुगमन करके कह रहा हूँ । इसी तरह कोई व्याख्याकार 'अयमश्वः' इत्यादि शब्दसंसृष्ट ज्ञानको उभयजज्ञान कहकर उसकी प्रत्यक्षताका निराकरण करनेके लिये अव्यपदेश्य पदकी सार्थकता बताते है । वाचस्पति 'अयमश्वः ' इस ज्ञानको उभयजज्ञान न मानकर ऐन्द्रियक कहते हैं । और वह भी अपने गुरुके द्वारा उपदिष्ट इस गाथाके आधार पर -
शब्दजत्वेन शाब्दश्चेत् प्रत्यक्षं चाक्षजत्वतः । स्पष्टग्रहरूपत्वात् युक्तमैन्द्रियकं हि तत् ॥
इसलिये वे 'अव्यपदेश्य' पदका प्रयोजन निर्विकल्पका संग्रह करना ही बतलाते हैं ।
न्यायमञ्जरी ( पृ० ७८ ) में 'उभयजज्ञानका व्यवच्छेद करना अव्यपदेश्यपदका कार्य है' इस मतका 'आचार्याः' इस शब्दके साथ उल्लेख किया गया है । उसपर व्याख्याकारकी अनुपपत्ति दिखाकर न्यायमञ्जरीकारने उभयजज्ञानका खंडन किया है ।
म० म० गङ्गाधरशास्त्रीने इस 'आचार्याः' पदके नीचे 'तात्पर्यटीकायां वाचस्पति मिश्राः' यह टिप्पणी की हैं । यहाँ यह विचारणीय है कि यह मत वाचस्पति मिश्र का है या अन्य किसी पूर्वाचार्यका ? तात्पर्य - टीका ( पृ० १४८ ) में तो स्पष्ट ही उभयजज्ञान नहीं मानकर उसे ऐन्द्रियक कहा है इसलिये वह मत वाचस्पतिका तो नहीं है । व्योमवती* टीका ( पृ० ५५५ ) में
* "न, इन्द्रियसहकारिणा शब्देन युज्जन्यते तस्य व्यवच्छेदार्थत्वात्, तथा अकृतसमयो रूपं पश्यन्नपि चक्षुषा रूपमिति न जानीते रूपमितिशब्दोच्चारणानन्तरं प्रतिपद्यत · इत्युभयजं ज्ञानम् ; ननु च शब्देन्द्रिययोरेकस्मिन् काले व्यापाराऽसम्भवादयुक्तमेतत् । -तथाहि मनसाऽधिष्ठितं न श्रोत्रं शब्दं गृह्णाति पुनः क्रियाक्रमेण चक्षुषा सम्बन्धे सति रूपग्रहणम् । न च शब्दज्ञान स्यैतावत्कालमवस्थानं सम्भवतीति कथमुभयजं ज्ञानम् ? 'अत्रैका श्रोत्रसम्बद्धे मनसि कियोत्पन्ना विभागमारभते • रिणा चक्षुषा रूपज्ञानमुत्पद्यते इत्युभयजं ज्ञानम् । यदि वा••• भवत्येवोभयजं ज्ञानम्"प्रश० व्यो० पृ० ५५५ ।
... ततः स्वशानसहायशब्दसहका
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