Book Title: Pramanmimansa
Author(s): Hemchandracharya, Sukhlal Sanghavi, Mahendrakumar Shastri, Dalsukh Malvania
Publisher: Saraswati Pustak Bhandar Ahmedabad
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सम्पादन विषयक वक्तव्य मादि का काम शुरू किया। १९३६ के मार्च तक साधन सामग्री तो अपेक्षा से अधिक एकत्र हो गई थी, पर अब सवाल आया उसके उपयोग का।
अन्य ग्रन्थों से जी और जितना संग्रह हुआ वह मूलगन्ध से कई गुना अधिक था और उसे ज्यों का त्यों छपवाने से इने गिने विद्वानों के अलावा दूसरों को विशेष लाभ पहुँचने का सम्भव कम था। दूसरी ओर वह संग्रह महत्त्व का होने से छोड़ने योग्य भी न था । अन्त में, ऐसा मार्ग सोचा गया जिसमें सारे उस संग्रह का उचित उपयोग भी हो, पुस्तक का ध्यर्थ कद भी न बढ़े और विशिष्ट विद्वानों, अध्यापको, संशोधकों और विद्यार्थियों सभी के योग्य कुछ न कुछ नई बस्तु भी प्रस्तुत की जाय । और साथ ही शास्त्रीय ग्रन्थों के ऊपर लिखने का एक नया प्रकार भी अभ्यासकों के सम्मुख उपस्थित किया जाय । इसके साथ साथ यह भी सोचा कि संस्कृत में लिखने को अपेक्षा वह हिन्दी-भाषा में लिखा जाय जिससे लिखी हुई वस्तु अधिक से अधिक जिज्ञासुओं तक पहुँच सके, राष्ट्रीय भाषा में शास्त्रीय ग्रन्धों की समृद्धि भी बड़े और अगर यह नया सा प्रस्थान विद्वानों का ध्यान खींच सके तो वह इस दिशा में काम करने के लिए औरों को भी प्रेरित कर सके । इस विचार से उसी साल हिन्दी भाषा में टिप्पण लिखने का सूत्रपात काशी में ही किया गया जिसका अन्तिम रूप इस पुस्तक के अन्त में भाषाटिप्पण के नाम से प्रस्तुत है। १९३६ की गरमी में सोचे हुए खाके के अनुसार अहमदाबाद में भाषा-टिप्पणों का भमुक भाग लिसा स्थिा लाया शा; सिर नपा-द में साशी में बाम आगे बढ़ा। इस बीच सितम्बर-अक्सूबर में कलकत्ता में भी थोड़ा सा लिखा गया और अन्त में काशी में उसको समाप्ति हुई।
सिंघी जैनग्रन्थमाला के मुख्य सम्पावत इतिहासकोविद श्रीमान् जिनविजयजी की सूचना के अनुसार १९३७ के प्रारम्भ में ही मैटर काशी में ही छपने को दे दिया और उनकी खास इच्छा के अनुसार यह भी तय कर लिया कि यथाशक्य इस पुस्तक को १९३७ के दिसम्बर तक प्रकाशित कर दिया जाय । इस निश्चय के अनुसार एक के बदले दो प्रेस पसन्द किये और साथ ही बीच के अनेक छोटे बड़े अधूरे काम पूरा करने की तथा नया लिख लेने की प्रवृति भी चालू रक्खी जिससे निर्धारित समय आने पर मलप्रन्थ, भाषाटिप्पण और कुछ परिशिष्ट छप गए।
कुछ खास कारणों से १९३८ की जनवरी में इसे प्रसिद्ध करने का विचार बन्द रखना पड़ा ! फिर यह विचार आया कि जब अवश्य हो थोड़ी देरी होनेवाली है सब कुछ अनुरूप प्रस्तावना क्यों न लिख दो जाय? इस विचार से १९३८ के मार्च-अप्रिल में प्रस्तावना का 'अन्धपरिचय' तो लिख दिया गया । पर, मैंने सोचा कि जब देरी अनिवार्य है तत्र में इस प्रस्तावना को अपने कुछ सुयोग्य विद्वान मित्रों को भी दिखा दूँ जिससे कुछ न कुछ योग्य सुधार ही होगा। गरमी में अहमदाबाद में तोन मित्रों ने इसे भाषा-टिपण सहित पढ़ा । श्री जिनविजयजी, श्री रसिकलाल परीख और ५० बेचरदास इन तीनों ने अपनी अपनी दृष्टि के अनुसार राय भी दी और सूचनाएँ भीकों पर एक काम बाकीथा जो मुझे व्याकुल कर रहा था, वह था ग्रन्थकार का जीवन-लेखन । हेमचन्द्र मेरे मन जिसने बडे है वैसा ही उनका पूर्ण जीवन लिख मनोरथ परेशान कर रहा था। इसके वास्ते काशी की ओर यथासमय प्रस्थान तो किया पर बीच में ही बम्बई में शरीर अटक गया और उसको सुप्रवृत्त बनाने के लिये अस्पताल में भपस्थान करना पड़ा । अनेक मित्रों, विधारसिकों और सन्तों को अकल्प्य परिचर्या के प्रभाव से शरीर की रक्षा तो हो गई पर काम की शक्ति बहुत कुछ क्षीणप्राय हो गई।
फिर भी १९३८ के सितम्बर में काशी पहुँच गया। पर ग्रन्थकार के जीवन का यथेष्ट परिचय लिखने जितना स्वास्थ्य न पाकर आखिर में उसका भार अपने विद्वान मित्र श्रीरसिक लाल परीख को सापा । उनका लिखा हुआ 'अन्धकार का परिचय संक्षिप्त होने पर भी गम्भीर