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परमात्मा बनने की कला
5.प्रव्रज्या फल.
चारित्र की पराकाष्ठा पर पहुँच कर, सर्वकर्मों को क्षय कर, प्रव्रज्याफल स्वरूप मोक्ष फल अवश्य ग्राह्य है। इस सूत्र में मोक्ष विषय (स्वरूप) का अद्भुत प्रतिपादन किया गया है। पंचसूत्र का प्रयोजनयुक्त क्रम
पंचसूत्र के प्रकरणों का संक्षिप्त विवेचन करने के बाद यह प्रश्न हमारे सामने उपस्थित होता है कि पंचसूत्र का प्रयोजन युक्त क्रम क्या होना चाहिए? इसी प्रश्न का उत्तर यहाँ प्रस्तुत किया जा रहा है, जिससे सुधी पाठक इसके व्यवहारिक क्रम से रूबरू हो
सकें
नूतन जिनालय का निर्माण करना हो तो सर्वप्रथम भूमि की शुद्धि करनी पड़ती है। भूमि शुद्धि के लिए जमीन की खुदाई कर भीतर रहे अस्थि-पंजर, अशुद्ध पदार्थ आदि निकाल कर सफाई करनी पड़ती है। जैसे किसान भी खेत जोतने से पहले पुराने व खराब बीजों को निकाल कर फिर नये बीजों का वपन करता है, वैसे ही अपने भीतर रहे पाप बीजों को निकालकर पहले सफाई करनी होगी। बीज यानि संस्कार। हिंसा आदि पाप करने से कर्म बन्धन होते हैं, साथ ही कुसंस्कार खड़े हो जाते हैं, क्योंकि बहुत से खराब संस्कार हमारी आत्मा के भीतर भरे पड़े हैं। उनको निकाल कर शुद्ध करना है।
प्रश्न उठता है कि इन पांच सूत्रों का क्रम ऐसा क्यों रखा गया? समाधान हैपाँच सूत्रों का यह क्रम युक्ति युक्त है, क्योंकि जैसे पाप का प्रतिघात किए बिना गुण बीजाधान नहीं होता और गुण बीजाधान हुए बिना धर्म गुण आधार श्रद्धा-परिणाम का अंकुर नहीं फूटता; और जब श्रद्धा नहीं होगी तो साधु धर्म की परिभावना होना और भी कठिन है, क्योंकि तब साधु धर्म की परिभावना नहीं किए हुए को दीक्षा लेने की विधि स्वीकारने का अधिकार नहीं होता। दीक्षा नहीं ली तो उसके पालन करने का प्रश्न ही कहाँ उठता है? दीक्षा का पालन नहीं करेगा तो दीक्षा का फल मोक्ष कहाँ से मिलेगा? यानि मिलेगा ही नहीं। यदि कोई दूसरे क्रम से इस विधि का पालन करेगा तो वास्तविक गुण, आत्मा की उत्क्रान्ति ही नहीं होगी। उससे मोक्ष सिद्ध नहीं होगा। इसलिए पंचसूत्र के इस क्रम से ही वस्तु की प्राप्ति होगी।
- पंचसूत्र का जो क्रम बताया गया है, वह सहेतुक है। अतः जीवों को सर्वप्रथम पापों का प्रतिघात करने के पश्चात् ही धर्म गुण के बीज का वपन करना चाहिए। यहाँ धर्म गुण यानि प्राणातिपात विरमण आदि है। जीव हिंसा, असत्य भाषण इत्यादि दुष्कृत्यों पर
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