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परमात्मा बनने की कला
चार शरण
पाप करने का विचार आया। उसी समय गुरु द्वारा प्रदत्त श्लोक की अन्तिम पंक्ति पढ़कर उसका चिन्तन करने लगे। भीतर की प्रज्ञापनीयता प्रकट हुई। ..
. एकस्य तओ मोक्खो बीयस्स अणन्त संसारो। कषाय के उपशम से एक का मोक्ष तथा कषाय की तीव्रता से दूसरे का अनन्त संसार बढ़ गया है। उसी प्रज्ञापनीयता के कारण बात हृदय में उतरी, और जघन्य पाप करने से बच गया . - शासन के प्रत्यनिक के प्रति भी द्वेष, अरूचि, असद्भाव नहीं होने चाहिए। हृदय के असद्भाव स्वयं की आत्मा को मलिन करते हैं। दूसरे का अहित होगा ही, यह जरूरी नहीं पर स्वयं का अहित निश्चित है।
जरा इधर देखें- तीन खण्ड के अधिपति प्रतिवासुदेव कहलाते हैं। रावण हजारों विद्याओं से विभूषितं थे, पर अभी तीन खण्ड जीतना बाकी था। जंब रावण तीन खण्ड को जीतने के लिए लंका से प्रयाण कर चुके थे। अन्त में केवल बालि को जीतना बाकी रहा, तब उसे ललकारा गया। रावण ने कहा- 'बालि! मेरी आज्ञा को स्वीकार कर ले अन्यथा तुम्हें पछताना पड़ेगा।' बालि ने रावण की ललकार सुनकर एक ही बात कही- 'बालि ने जीवन में एक बार जिनेश्वर देव की आज्ञा स्वीकार कर ली, अब उसे किसी की भी आज्ञा स्वीकारने की आवश्यकता नहीं है।'
रावण और बालि के बीच युद्ध आरंभ हो गया। बहुत बड़ी सेना, भयंकर युद्ध, लाखों लोगों को मौत के घाट उतार दिया गया। बालि ने ऐसा दांव खेला, जिससे कभी न पराजित होने वाला रावण भी हार गया। तभी बालि ने विचार किया कि इतने बड़े महान् पुरूष की यह हालत हो गई तो इस संसार में क्या रखा है। फिर इस संसार में छोटे लोगों का क्या सम्मान होगा? हार से रावण का मस्तक लज्जा से नीचे झुक गया। सबके समक्ष उसको अपमानित होना पड़ा। क्या से क्या दशा प्राप्त हो गई।
यह संसार दुःख रूप है। ऐसा चिन्तन मात्र ही बालि के जीवन में परिवर्तन लेकर आया। बालि युद्ध भूमि में ही अपने मस्तक के बालों का लोच करके चारित्र अंगीकार कर वहाँ से विहार कर गए। अब बालि मुनि बन गए।
बालि मुनि धरती पर विचरण करते-करते अष्टापद पर्वत पर गये और वहीं ध्यान मुद्रा में खड़े हो गये। उसी समय रावण उनके ऊपर से आकाश मार्ग से जा रहे थे। बालि मुनि के तप-त्याग के प्रभाव से विमान स्तंभित हो गया। नीचे बालि मुनि को देखते ही रावण क्रोध की अग्नि से जलने लगे और विचार करने लगे- 'यह मुझे अभी भी परेशान
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