Book Title: Parmatma Banne ki Kala
Author(s): Priyranjanashreeji
Publisher: Parshwamani Tirth

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Page 204
________________ परमात्मा बनने की कला आदि की प्रवृत्ति से तो इनका पोषण होता ही रहेगा। इस प्रकार ये तीनों होने पर भी धर्मप्रवृत्ति यदि अविधि से युक्त होगी, तो आत्मा के सत्व का हनन होगा। सत्व अखण्ड होगा तो क्यों दोष लगाएगा ? जब प्रवृत्ति दोष रहित व अतिचार-मुक्त बनेगी, तभी इससे ऊपर की कक्षा की प्रवृत्ति होगी। ऊपर के गुणस्थानक चढ़कर अंतिम पराकाष्ठा वीतरागता तक पहुँच सकेगी। सत्व के बिना यह सब कुछ नहीं हो सकेगा। उन्नति के विशिष्ट साधन और उनके कारण जिनाज्ञा के प्रति अटूट रूचि, निर्मल हृदय, प्रबल पुरूषार्थ और सत्व, इन चारों उन्नति के साधनों के लिए - 1. सम्यक् विधि का पालन 2. विशुद्ध अध्यवसाय 3. यथाशक्ति सम्यक् क्रिया और 4. उसका निर्दोष निरतिचार निर्वाह, ये प्रवृत्ति के अंग हैं। 1. जिनाज्ञा के प्रति रूचि से जीव जिनेश्वर देव की सच्ची शरण स्वीकार करता है। उनके शरण में जाना मतलब उनको सच्चा, तारक, रक्षक, शासक मानना; उनके द्वारा कहे ये तत्त्व ही सच्चे, उनके द्वारा कहा गया आराधना मार्ग ही सच्चा, ऐसे हार्दिक भाव उपस्थित होना। जिससे जिनोक्त तत्त्व, मार्ग और विधि के प्रति बहुत आदर भाव रहते ही हैं। अनादि के मूलभूत दोष अहंत्व को मिटाने के लिए ये भाव अद्भुत काम करते हैं। यह सच है कि मैं जिनाज्ञा को प्राथमिकता देता हूँ। ऐसा मात्र कहना ही नहीं, बल्कि जीवन में जी कर बताना; यह है जिनाज्ञा रूचि, इसलिए सक्रिय जिनाज्ञा रूचि चाहिए । सुकृत अनुमोदना 2. सुन्दर अध्यवसाय से भरा हृदय, पवित्र भाव में सतत लगा रहे तो मलिन भाव और हल्के विचार बहुत कम हो जाएँगे । कुसंस्कार ह्रास होते जाएँगे, सुसंस्कार का बल बढ़ता जाएगा। जिससे शुभ संस्कारों का समूह एकत्रित होते ही आगे उच्चकोटि के अध्यवसाय को अवसर मिलता रहेगा। 3. पुरूषार्थ और सत्व के मूल्य तो तीर्थंकर भगवान के द्वारा कहे गये धर्म शासन की स्थापना के द्वारा समझ सकते हैं। यदि काल, स्वभाव, पूर्वकर्म अथवा भवितव्यता से ही आत्मा का उद्धार हो जाता हो तो शासन की स्थापना करने की क्या जरूरत? परन्तु मोक्ष मार्ग की आराधना में पुरूषार्थ बदलने के लिए ही आराधना का शासन स्थापित किया । ज्ञानाचार, दर्शनाचार, चारित्राचार, तपाचार और वीर्याचार, इन पंचाचार में वीर्याचार नाम का अलग से आचार बताया गया है। यह आचार चारों आचारों के पुरूषार्थ में विशेष सत्व बदलने के लिए है; जिससे जीव की निर्दोष और शक्तियुक्त Jain Education International 202 For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org

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