Book Title: Parmatma Banne ki Kala
Author(s): Priyranjanashreeji
Publisher: Parshwamani Tirth

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Page 215
________________ रमात्मा बनने की कला सुकृत अनुमोदना पैर में सर्प काटने के बाद अंगूठे को डोरी से कस कर बांध देने से जैसे ज़हर आगे नहीं बढ़ता है, वैसे ही इस सूत्र का पाठ करने से कर्म का ज़हर भी आगे फैलने से रूक जाता है। दुःख देने वाले कर्म निरनानुबंध हो जाते हैं। इस सूत्र के प्रभाव से कर्मों का सामर्थ्य खत्म हो जाता है, कर्मों का फल अल्प हो जाता है, उन कर्मों को सरलता से संपूर्णतया आत्मा से दूर किया जा सकता है। फिर कर्मों का बंध नहीं होता है। भूतकाल में भोगे, वैसे दुःखों को भविष्य में भोगना नहीं पड़ता है। - इस प्रकार इसे सम्यक् प्रकार से पढ़ने वाले, सुनने वाले और इनकी अनुप्रेक्षा करने वालों के अशुभ कर्म के अनुबय शिथिल बनते हैं, हास को प्राप्त हो जाते हैं, और क्षीण हो जाते हैं। यहाँ सूत्र को सम्यक् रीति से पढ़ने से कैसे अपूर्व फल की प्राप्ति होती है, उसे बताते हैं। 'सम्यक् रीति से' यानि कि हृदय में संवेग का प्रकाश बिछाकर पूर्व में कहे गये 1. चार शरण में संवेग अर्थात् श्री अरिहंतदेवादि के उन विशेषणों की वैसी की वैसी हृदयस्पर्शी श्रद्धा और आदर, . 2. दुष्कृत गर्दा में संवेग अर्थात् हृदय में से दुष्कृत के शल्य निकालकर, स्वयं के दुष्कृतकारी आत्मा के प्रति सच्ची दुर्गच्छा के भाव 'अरे रे रे! मैं कैसा अधमकारी? मैंने कैसा गलत कार्य किया वैसे ही; 3. सुकृत आसेवन में संवेग अर्थात् क्रिया पर्यन्त आत्मा को ले जाय, वैसी गुण प्रमोदवाली प्रार्थना। 4. साथ ही, उसे पालन करने में देवाधिदेव और सद्गुरु के परम सामर्थ्य के भाव पर अटल श्रद्धा, यह संवेग है। 5. साथ ही संवेग अर्थात् शरण इत्यादि तीन उपाय अनन्तकाल इस भव में प्राप्त कस्ने के बदले स्वयं को महाधन्य मानने के भाव इत्यादि सुनने वाले मुख्य रूप से यह सूत्र स्वयं पढ़ने वाले तथा दूसरों के पास सुनने वाले, वैसे ही सूत्र के अर्थ का पीछे से स्मरण पारा चिन्तन करने वाले को, कर्मों के पूर्व में बांधे गये अशुभ बंध और अनुबन्ध मंद होते हैं। उन कर्मों की स्थिति कम होती है तथा विशिष्ट कोटि के शुभ अध्यवसाय के सुन्दर अभ्यास द्वारा उन अशुभ कर्मों के अनुबन्ध निर्मूल नष्ट हो जाते हैं। अशुभ कर्म का अनुबन्ध अर्थात् आत्मा में रहे हुए प्रकट या छुपे तीव्र भावों के संस्कार; अथवा उन संक्लेशों को जगाने वाले विशेष चिकने कर्म। ऐसे अशुभानुबन्धी भाव संसार में अविच्छिन्न बह रहे हैं, परन्तु महामन्त्र सम महौषधि और श्रेष्ठ रसायन सम, परम अमृत स्वरूप पूर्वोक्त सूत्र का पठन, Jain Education International 213 For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org

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