Book Title: Parmatma Banne ki Kala
Author(s): Priyranjanashreeji
Publisher: Parshwamani Tirth

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Page 202
________________ परमात्मा बनने की कला सुकृत अनुमोदना आपके जीवन में जब तक कोई भी दोष शेष होंगे, तब तक मोक्ष नहीं होगा। इसलिए सभी दोषों को तिलांजलि देंगे, तभी मोक्ष होगा; साथ-साथ आत्मिक सर्वगुणों की पराकाष्ठा प्राप्त करेंगे, तब मोक्ष हुआ कहलायेगा। - अब ये गुण प्राप्त करने लायक न लगें, अच्छे न लगें, इसकी इच्छा या अभिलाषा भी नहीं, तो मोक्ष प्राप्त करने का प्रणिधान है क्या? आप कहेंगे, कैसी बात है? जैसे एक मानव कहता है, मुझे अरबपति बनना है, पर अरबपति कब बन सकता है। अब जिसे सौ, हजार, लाख, करोड़, पाँच करोड़ रुपये नहीं चाहिए, मात्र अरब ही चाहिए। ऐसा व्यक्ति मिलेगा ही नहीं, पर यदि मिल जाए तो आश्चर्य ही लगेगा? . . अरबपति बनने से पहले लाख तो प्राप्त करो। वैसे ही आपको सीधे मोक्ष का टॉप लेवल चाहिए। हां, मैं धर्म करता हूं, इससे मोक्ष होगा, दूसरा मुझे संसार का कुछ नहीं चाहिए। जो ऐसा संकल्प हो तो सही, पर गुण प्राप्त करने लायक लगते हैं ! गुणों को प्राप्त करने की अभिलाषा है भीतर! यदि एक गुण की भी अभिलाषा कम हो तो भी मुक्ति का प्रणिधान नहीं आता है। ___कहते हैं, प्रणिधान का प्रारम्भ पहले योगदृष्टि में होता है। पूर्ण प्रणिधान पांचवीं योगदृष्टि में आता है। सम्यग्दृष्टि का प्रणिधान शत्-प्रतिशत असली सोने जैसा होता है। सम्यग्दृष्टियों में परस्पर शुद्धि की तरतमता होगी, पर हेय-उपादेय का विवेक शत्प्रतिशत समान होगा। कदाचित् छोड़ने और आचरण में तीव्रता, मंदता या बोध की सूक्ष्मता कम ज्यादा हो सकती है, परन्तु शत्-प्रतिशत दोष छोड़ने जैसे हैं (हेय), गुण सभी ग्रहण करने जैसे हैं (उपादेय); उसका विवेक पक्का होगा, इससे ही सम्यग्दृष्टि और मिथ्यादृष्टि के प्रणिधान में फर्क पड़ने वाला है। अपुनर्बन्धक दशा से इसकी नींव शुरू होती है। यदि जीव में एक भी दोष का आग्रह होगा या एकाध गुण भी यदि नहीं पसन्द हों तो वह पुनर्बन्धक भी नहीं है। उसके बिना कोई भूमिका भी नहीं। श्रेष्ठ लोकोत्तर गुणों से युक्त श्री अरिहंतदेव, सिद्ध भगवान आदि के सामर्थ्य से उनके शक्ति-प्रभाव से ऊपर कही गई मेरी अनुमोदना1. आगम के अनुसार सम्यक् विधि वाली हो, ऐसी मैं इच्छा करता हूँ। 2. वह अनुमोदना तीव्र मिथ्वात्त्व कर्म के विनाश से सम्यक् यानि शुद्ध भाव वाली हो अर्थात् पौद्गलिक इच्छा से रहित, दंभहीन विशुद्ध भावना वाली हो। 3. वह अनुमोदना सम्यक् स्वीकार करने वाली हो, इसलिए उस क्रिया को अच्छी प्रकार से पालन करने वाली हो। Jain Education International 200 For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org

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