Book Title: Parmatma Banne ki Kala
Author(s): Priyranjanashreeji
Publisher: Parshwamani Tirth

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Page 201
________________ परमात्मा बनने की कला सुकृत अनुमोदना पैसा कमाना योग्य है, यह संकल्प है ना ? आप इतनी मेहनत संकल्प के बिना कर सकते हैं ? कर्त्तव्यता का निर्णय ही संकल्प है। इसलिए ही जिस-जिस जगह कर्त्तव्यता का संकल्प है, वहाँ वहाँ प्रणिधान है। जहाँ कर्त्तव्यता का संकल्प नहीं, वहाँ प्रणिधान नहीं। प्रणिधान युक्त धर्म ही शुद्ध धर्म अनन्त जो आत्मा धर्मतीर्थ को प्राप्त करती है, उसने भूतकाल में पुण्य का संचय किया है तभी उसको व्यवहार से धर्मतीर्थ की प्राप्ति हुई है । भूतकाल में भी इस धर्म की प्राप्ति कई बार हुई। यह कोई पहली बार प्राप्त नहीं हुआ है । अनन्त बार मनुष्य भव प्राप्त किया, बार शासन प्राप्त किया, जैन कुल-धर्म का भी आचरण किया है; धर्म के साथ कुछ लेन-देन ही नहीं है, ऐसा नहीं; बल्कि धर्म का विशेष परिचय भी प्राप्त किया । अरे! तीर्थंकर की वाणी भी सुनी, श्रद्धा भी की, आचरण भी किया, श्रावकत्व और साधुत्व का भी विशुद्ध रूप से पालन किया। अपनी आत्मा ने भूतकाल में कुछ किया नहीं और अब यह शासन मिल गया है, इसलिए हम एक कदम आगे आ गये हैं, ऐसा नहीं है । इस जीव ने अनन्त बार अच्छे कार्य किये हैं । मन-वचन काया से आराधना की, फिर भी मोक्ष नहीं मिला, संसार से जीव छूटा नहीं, आत्मा का उत्थान हुआ नहीं । कारण क्या है ? कौन-सी कड़ी उसमें कम पड़ रही थी कि जिससे आराधना आध्यात्मिक दृष्टि से निष्फल गई? इसके लिए उपाध्याय यशोविजय जी महाराज फरमाते हैं कि, 'वे सच्ची आराधना भावशून्य की थी, अर्थात् उसमें प्रणिधान रूप विशुद्ध भाव धर्म नहीं था । ' मन कहीं भटकता रहे और काया से क्रिया की, यह भाव का अर्थ नहीं है। वस्तुत: एकाग्रचित्त क्रिया की हो, पर उसमें प्रणिधान भाव नहीं रहा हो तो वह क्रिया भाव शून्य कही जाती है । कोई भी ऊँचा धर्म या सामान्य धर्म, जो भाव धर्म-युक्त न हो तो वह द्रव्य क्रिया ही कहलाएगी। ऐसे धर्म का फल पुण्यबन्ध होगा, या धर्म की सामग्री प्राप्त हो सकेगी। यह उसका अधिकतम फल होगा, परन्तु प्रणिधान नाम के भाव धर्म से ही सच्चा फल प्राप्त होता है। इस भाव के साथ धर्म को शुद्ध धर्म कहते हैं, शेष अशुद्ध धर्म कहा जाता है। शुद्ध धर्म ही योगरूप में मोक्ष का अनुसंधान कर सकता है। अशुद्ध धर्म का फल ही नहीं है, ऐसा हम नहीं कहते; परन्तु अशुद्ध धर्म का फल मुक्ति नहीं है । प्रणिधान वाला धर्म ही मुक्ति का कारण बनता है । मोक्ष का प्रणिधान कब आता है ? शब्द बोलना सरल है, परन्तु उसके भावों को पकड़ना कठिन है । सर्वदोषों से • रहित और सर्वगुण सम्पन्न, आत्मा की ऐसी अवस्था ही उसका मोक्ष है। अब हमारे या Jain Education International 199 For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org

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