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परमात्मा बनने की कला
सुकृत अनुमोदना
बुढ़िया बोली- 'श्रेष्ठिवर्य ! मुझे पार्श्वनाथ का नाम स्मरण करने को मिला, इतना ही मेरे लिए बहुत है। यदि आप ज्यादा आग्रह करते हो तो हमारे गाँव के बाहर एक सुन्दर रमणीय स्थान है, जहाँ एक सुन्दर भव्य जिनालय पार्श्वनाथ परमात्मा का बन जाए, ऐसी मेरी भावना वर्षों से है । '
श्रेष्ठवर्य भावना को स्वीकार कर वहाँ से रवाना हो गये ।
अन्तरमन की भावना साकार
यात्रा पूर्ण कर बुढ़िया अपने गाँव पहुँची। कुछ दिन पश्चात् कुछ लोग उन्हें ढूंढते हुए आए और स्थान आदि देखकर उस जगह को खरीदा तथा पैसों की चिन्ता नहीं करते हुए एक कारीगर को भव्य जिनालय के निर्माण हेतु आदेश दिया। कुछ ही वर्षों में वहाँ सुन्दर जिनालय के रूप में माँ जी की भावना सफल हुई। माँ जी का सपना साकार हुआ।
तात्पर्य यह है कि जिस बुढ़िया के पास एक रुपया भी खजाने के रूप में नहीं था वहाँ उसकी भावना जिनालय निर्माण की थी; और वही भावना आध्यात्मिक जगत की होने से, निस्वार्थ भाव पूर्वक होने से अवश्य सफल हुई।
जहाँ निस्वार्थ भाव होते हैं वहाँ फल अवश्य मिलता है।
सुकृत अनुमोदना से दो प्रकार के फल प्राप्त होते हैं
1.
जो व्यक्ति सुकृत की अनुमोदना करता है, वही सुकृत उसमें आता है। 2. सुकृत करने वालों ने जिस पुण्य का उपार्जन किया, वैसा ही पुण्य वह भी उपार्जित करता है।
अनुमोदना हृदय से करनी चाहिए। तभी कहा है- 'करण, करावण ने अनुमोदन, सरिखा फल निपजावत । '
भावों की तारतम्यता
एक बात बराबर समझनी है... शुभ भाव से पुण्य और अशुभ भाव से पाप का • होता है। यहाँ दुनियाँ जो बोले, उससे पुण्य-पाप नहीं बंधता है, बल्कि भाव प्रमाण ह बंध होगा। आप २४ घण्टे किन भावों में रहते हैं ? २४ घण्टों में कितने घण्टे शुभ भाव में और कितने घण्टे अशुभ भाव में रहते हैं? उसी पर पाप-पुण्य निर्भर करता है। इसमें किसी की होशियारी नहीं चलती है। जो भावों की विचारणा न करे तो मूर्ख कहलाएगा।
'जीव जब संसार के कोई भी पदार्थ की इच्छा के बिना, स्वार्थ भाव के बिना,
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