Book Title: Parmatma Banne ki Kala
Author(s): Priyranjanashreeji
Publisher: Parshwamani Tirth

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Page 197
________________ परमात्मा बनने की कला सुकृत अनुमोदना आवश्यकता है। बुदियामाँकीसुकृत इच्छा __राजस्थान में आज भी अनेक ऐसे अनूठे और भव्य जिनालय उपस्थित हैं, उनके इतिहास हमारे समक्ष हैं। एक छोटे ग्राम में एक बुढ़ियाँ माँ रहती थी। शादी के कुछ ही वर्ष बाद छोटी उम्र में पति की मृत्यु हो गई। अकेली विधवा अपने जीवन का निर्वाह करने हेतु लोगों के घर काम कर अपना पेट भरती थी। जितना मिलता, उससे स्वयं का गुजारा कर लेती, क्योंकि पीछे संतान की चिंता थी नहीं। जब प्रतिदिन कार्य हेतु गाँव के बाहर जाती थी, तब वहाँ का सुन्दर रमणीय स्थान निहार कर प्रसन्न होती। समय व्यतीत होता रहा। बुढ़िया पढ़ी-लिखी नहीं थी, परन्तु उसे पार्श्वनाथ परमात्मा के प्रति वर्षों से अगाढ़ श्रद्धा थी। जब भी वह उस रमणीय स्थान को देखती, उसका विचार चलता। काश! यहाँ पार्श्वनाथ परमात्मा का जिनालय होता तो कितना मनोहर लगता? .. उसको स्वयं के कपड़ों का ठिकाना नहीं था। खाने-पीने के लिए लोगों के यहाँ कार्य करके गुजारा निकालना पड़ता था। छोटी-सी टूटी-फूटी झोपड़ी थी। फिर भी किस आधार पर वह भावना भा रही थी। ज्ञानी कहते हैं, श्रद्धा बड़ी महान् वस्तु है। कुण्ठित बुद्धि वालों को श्रद्धाबल की जानकारी नहीं है। परन्तु समस्त वस्तुएँ बुद्धि के पैमाने से नहीं नापी जाती हैं। सम्मेत शिखरकीयात्रा बुढ़िया माँ को पता चला कि उसके गाँव से कोई संघपति सम्मेत शिखर जी का संघ ले जा रहा है। उसमें साधर्मिकों को भी पास दिया जा रहा है। बुढ़िया माँ भी पार्श्वदादा के दर्शन करने की इच्छुक थी। अतः उसे भी पास प्राप्त हो गया। सभी यात्रीगण मम्मेत शिखर जी पहुँचे। दूसरे दिन सभी को पार्श्वदादा के दर्शन के लिए पर्वत पर चढ़ना था। बुढ़िया माँ के भी मनोरथ थे कि वह भी ऊपर जाकर दर्शन करे। हमें भी ऐसा मनोरथ करना है कि गिरिराज की यात्रा करते समय कदम-कदम पर अनन्त कर्मों का क्षय करें। दूसरे दिन बुढ़िया माँ परमात्मा की सच्चे हृदय से पूजा, भक्ति, सेवा आदि करके तीन-चार बजे नीचे पहुँची। भोजनशाला में भोजन कर कमरे के बाहर बैठ गई। इतने में धर्मशाला के पास से जोर-जोर से रोने की आवाज सुनाई दी। .. बुढ़िया माँ विचार करने लगी। पार्श्वनाथ के दरबार में किसके रोने की आवाज आ रही है। जहाँ से आवाज आ रही थी, वहाँ पहुँची और देखा कि पैंतीस वर्ष की श्रेष्ठि 195 For Personal & Private Use Only Jain Education International www.jainelibrary.org

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