Book Title: Parmatma Banne ki Kala
Author(s): Priyranjanashreeji
Publisher: Parshwamani Tirth

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Page 180
________________ परमात्मा बनने की कला सुकृत अनुमोदना तीनों काल के सभी आचार्य भगवन्तों का ज्ञानाचार, दर्शनाचार, चरित्राचार, तपाचार और वीर्याचार। इन आचारों का पालन, भव्य जीवों को इनका दान और इनमें प्रवर्तन साथ ही शासन प्रभावनादि सभी की भूरि-भूरि अनुमोदना करता हूँ। जगत् के प्राणियों के हिंसक और मोहभरे विवेकशून्य, कष्टप्रद पाप आचार कहाँ, और कहाँ विवेकी और भावदयामयी उन्नतिकारी, कंचन समान ये ज्ञानाचार आदि उत्तम आचार! कहाँ पापाचारों का पालन और प्रचार? कहाँ पवित्र आचारों का पालन और प्रचार? आचार्य केशी गणधर ने नास्तिक प्रदेशी राजा को और थावच्चापुत्र आचार्य ने मिथ्या दृष्टि सुदर्शन श्रेष्ठि को महाआस्तिक समकित श्रावक बनाया। ... इस प्रकार सभी उपाध्याय जी महाराज, जो भावी मंगलमय सूत्रों का सम्यग् विधि से दान करते हैं। सूत्रदान और सूत्र परम्परा-रक्षण की अनुमोदना करता हूँ। कैसी ये महान् पुरूषों की सुन्दर भावानुकम्पा; जिनके योग से अनन्तकाल में ये शिष्य-वर्ग को किसी से उपकार नहीं हुआ हो, वैसा अति महान् उपकार हुआ। उसी प्रकार सूत्रों की भूतकाल से चली आ रही कल्याण परम्परा अखण्ड भविष्य के लिए चलेगी। . .. उसी प्रकार सर्व त्यागी साधु महात्माओं के सम्यक् स्वाध्याय, अंहिसा-संयम और तप, विनय भक्ति और वैयावच्च उपशम-शुभध्यान और मैत्री करूणा आदि शुभभाव तथा महाव्रत और इनकी सुन्दर भावना। घोर उपसर्ग और उसमें अचल स्थिरता, धीरता, साथ में भव्य जीवों को रत्नत्रयी साधना में सहायभूत... इत्यादि। साधु भगवंतों के उत्तम अनुष्ठानों की मैं बहुत अनुमोदना करता हूँ। कितनी अलौकिक जीवनचर्या है। कैसा निर्दोष, स्वपर हितकारी, कल्याणानुबंधी, विश्ववत्सल व्यवहार, कैसी आत्मा की पवित्र प्रवृत्ति, कैसा प्रबल पुरूषार्थ। अहो! जिन भाग्यवान् आत्माओं को इतना सुंदर जीवन प्राप्त होता है। उनके पुण्य की तथा उनके आत्मा की बलिहारी है। उनको करोड़ों बार धन्यवाद है। भवसागर को लगभग तिरने के लिए आए हैं। हृदय से किये अनुष्ठानों पर पूर्ण श्रद्धा, आकर्षण भाव, निधान प्राप्ति रूप हर्ष इत्यादि से अनुमोदना की जाए। जीवन में यही सार है, यही कर्त्तव्य है, यही शोभास्पद है, इसमें स्वयं पुरूषार्थ के योग्य कर्मों का क्षयोपशम होता जाता है। ऋषभदेव प्रभु का जीव पूर्व में वज्रसेन चक्रवर्ती के भव में पिता तीर्थंकर की कृपा प्राप्त कर सुकृत अनुमोदना करता रहा, इससे मोहनीय वीर्यांतराय इत्यादि कर्मों को दबाते, उनका क्षयोपशम करके चक्रवर्ती रूप को छोड़कर मुनि बना, यहाँ तक 14 पूर्वधर महातपस्वी और अनेक लब्धि से सम्पन्न बनकर तीर्थंकर नामकर्म उपार्जन कर अनुत्तर विमान में देव बना। पूर्ण श्रद्धा, आकर्षण और Jain Education International 178 For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org

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