Book Title: Parmatma Banne ki Kala
Author(s): Priyranjanashreeji
Publisher: Parshwamani Tirth

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Page 184
________________ परमात्मा बनने की कला जुड़ता है तो भवभ्रमणा तोड़ देता है । याद रखना, हमने आज तक शालिभद्र के यहाँ प्रतिदिन उतरती 99 पेटियों पर ही ध्यान दिया है। दान देते समय वे 99 पेटियां दिखाई देती हैं किन्तु शालिभद्र के दान का भाव कभी हमने जानने का प्रयास ही नहीं किया। हमारा दान द्रव्य दान ही रहा, भावदान नहीं बन सका। रेवति महाश्राविका ने कोलापाक का दान दिया। कितना समय दान में व्यतीत हुआ होगा ? क्षण, दो क्षण, पाँच क्षण । किन्तु रेवति श्राविका का वह दान भावपूर्वक किया. गया दान था। सिंह अणगार वोहर रहे हैं। महाश्राविका रेवति वोहरा रही है। द्रव्य कोलापाक है। भगवान् महावीर को खून की दस्तें लग रही थी, इसलिए यह औषधि के रूप में महाश्राविका रेवति कोलापाक वोहरा रही है। तीर्थंकर भगवान के लिए वोहरा रही है। उस क्षण भावों का समुद्र लहरा रहा था महाश्राविका रेवति के हृदय में; और क्षण दो क्षण की भावधारा ने महाश्राविका को तीर्थंकर पद की भेंट दे दी। सुकृत अनुमोदन दान तो सभी रोज देते होंगे ? किन्तु आये कभी ऐसे भाव ? यदि आया होता तो अभी तक मोक्ष नगरी में चले जाते, किन्तु हमारा मन हमेशा दान के फल स्वरूप भोग ही मांगता रहता है। मांग करना या अपेक्षा रखना द्रव्य दान है, भाव दान नहीं। एक प्रसंग इन्हीं बातों को दर्शाता है बात उन दिनों की है जब श्रमण भगवान महावीर छम्रस्थ अवस्था में पृथ्वीतल पावन कर रहे थे। तप पूर्ण होने पर श्रमण भगवान् किसी नगरी में गोचरी के लिए निकले। किसी भाग्यशाली के यहाँ भगवान का पारणा हुआ तो देवताओं ने प्रसन्न होकर सुवर्ण मोहरों की वर्षा की। यह देख कर एक वेश्या ने सोचा- 'सारी जिन्दगी नाच गाने में बिताने जात साधु को दान देना अच्छा है। एक बार भिक्षा दो और सोने का ढेर हो जाएगा।' के इधर एक भांड साधु वेश पहनकर भिक्षा के लिए निकला। नगर में वेश्या ने उस साधु को (भांड) देखकर आमन्त्रण दिया । 'पधारो महाराज ! पधारो !' भांड ने आमन्त्रण स्वीकार किया। अपने हाथ भिक्षा के लिए फैलाए । वैश्या ने दान देना आरम्भ किया और बार-बार ऊपर देखना शुरू किया। अब वृष्टि हो, अब वृष्टि हो। किन्तु स्वर्ण मोहरें तो बरसी नहीं। जब भांड ने देखा कि वेश्या ऊपर देख रही है तो उसे भी कल की घटना याद आ गई। उसे मनोमन हँसी आ गयी और वह बोला वो साधु, वो श्राविका तू वैश्या, मैं भांड । Jain Education International 182 * For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org

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