Book Title: Parmatma Banne ki Kala
Author(s): Priyranjanashreeji
Publisher: Parshwamani Tirth

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Page 186
________________ परमात्मा बनने की कला स्कृत अनुमोदना एक दिन की बात है । गुणसागर कुमार हवेली के झरोखे में बैठा राजमार्ग की चहल-पहल देख रहे थे। तभी एक तपस्वी मुनि उसके दृष्टि पथ में आए। मुनिवर को देखते ही उनका मन वर्तमान को पार कर भूतकाल की गलियों में घूमने लगा। जन्म के उस पार की घटनाएँ याद आ गईं। ओह ! पिछले जन्म में मैं भी मुनि था। साधना करता था । कैसा आनन्दमयी वह समय था ! तब सारा दिन स्वाध्याय में बीतता था ! गुणसागर कुमार आनंदित हो उठा। उसके रोम-रोम में आनन्द की अनुभूति होने लगी। मनोमन निश्चय किया, इस जन्म को भी ऐसी ही आराधना - साधना में निर्गमन करना है। दीक्षा लेनी है। गुणसागर कुमार ने माता-पिता के समक्ष दीक्षा का प्रस्ताव रखा। स्नेही माता-पिता चौंक पड़े। अचानक यह परिवर्तन क्यों ? आठ-आठ बहुओं की सास बनने के अरमान संजोये थे गुणसागर की माता ने । माता ने कहा- 'बेटा! थोड़े ही दिन में तुम्हारा विवाह होने वाला है और तू दीक्षा की बात कर रहा है। ऐसी क्या बात है ? ' गुणसागर ने कहा- 'माता जी...। कहाँ संयम जीवन का अपार आनन्द और कहाँ यह लग्न जीवन का बन्धन ? मैं तो गगनविहारी मुक्त पंछी हूँ। मुझे विवाह का बन्धन पसन्द नहीं है। मुझे दीक्षा की अनुमति दीजिए। ' मोह दूर हो गया। संसार का कोई भी आकर्षण गुणसागर को आकर्षित नहीं कर सका। संसार से विरक्त व्यक्ति के लिए 'सब पुद्गल की बाजी' हैं। माता ने गुणसागर कुमार को समझाने में कोई कमी नहीं छोड़ी, किन्तु गुणसागर अपने निर्णय में अटल रहा। यदि वैराग्य कच्चा होता तो गुणसागर विचलित हो जाता, किन्तु यह तो भवोभव का आराधक-साधक व्यक्ति था। अपनी अधूरी साधना पूर्ण करने के लिए जन्मा था। अतः माता-पिता के किसी प्रलोभन में नहीं आया। जब माता-पिता को यह महसूस हो गया कि गुणसागर अब संसार में नहीं रहेगा, तब उन्होंने एक शर्त पर दीक्षा की अनुमति दी, 'एक बार विवाह कर लें, फिर भले दूसरे दिन दीक्षा लेना हो तो ले लेना।' गुणसागर कुमार ने माता-पिता की बात स्वीकार ली। किन्तु जिन कन्याओं के साथ विवाह होना तय है, उन्हें भी तो पूछना चाहिए। अत: रत्नसंचय सेठ ने कन्याओं के पिता को बुलाकर कहा- 'विवाह करने के ठीक दूसरे दिन हमारा पुत्र दीक्षा ले लेगा। अपनी कन्याओं को पूछ लीजिए। ' Jain Education International सज्झायकार महापुरूष ने संवाद खूब ही सुन्दर रचा है'अम सुतं परणवा मात्र थी थशे संयमधारी । ' 184 For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org

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