Book Title: Parmatma Banne ki Kala
Author(s): Priyranjanashreeji
Publisher: Parshwamani Tirth

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Page 168
________________ परमात्मा बनने की कला दुष्कृत गर्दा स्वरूप फरमाते हैं। यह मरण दुःखों के समूहरूप लताओं का नाश करने के लिए एक तीक्ष्ण धार वाली कुल्हाड़ी के समान है। इसके विपरीत जन्म-मरण और दुःखों की परम्परा को बढ़ाने वाले मरण को वीतराग भगवान् ने बालमरण कहा है। पुनः इन दोनों के पाँच उप-प्रकार बतलाए हैं 1. पण्डित-पण्डित मरण -जिनेश्वरदेवों का 2. पण्डितमरण - सर्वविरतिधर साधुओं का 3. बालपण्डितमरण - देशविरति श्रावक आदि का 4. बालमरण - अविरत सम्यक्दृष्टियों का 5. बाल-बालमरण - मिथ्यादृष्टियों का जो जिनेश्वरदेव कथित वचनों पर श्रद्धा नहीं रखते हैं, वे जीव अनन्त बार जन्म-मरण करने के पश्चात् भी लेशमात्र निर्वेद गुण को प्राप्त नहीं करते हैं। बालमरण का संक्षेप में उल्लेख करते हुए कहा गया है कि यह संसार दुर्गम अटवी के समान है, जिसमें दुःखों से पीड़ित जीव बालमरण से मरते हुए अनादिकाल से परिभ्रमण कर रहे हैं। जन्म, जरा, मरणरूपी इस चक्र में परिभ्रमण करते हुए अत्यधिक थक जाने से वे संसार से पार नहीं होते हैं। जिस प्रकार रहट में बांधा हुआ बैल दिन-रात घूमता ही रहता है, उसी प्रकार जीव भी संसार में परिभ्रमण करता है। अतः बालमरण के स्वरूप को जानकर धीर पुरूषों को पण्डितमरण स्वीकार करने का प्रयत्न करना चाहिए। यहाँ दुष्कृत्य किसे कहा गया है, उसे पहले समझना होगा। श्री अरिहंत भगवान तथा मंदिर जी की आशातना, विरोध, अविनय, अवर्णवाद या अनादर आदि करना, उनकी आज्ञा की अवहेलना करना, उनके तत्त्व सिद्धांत या मार्ग का विरोध करना या विराधना करना, अश्रद्धा या अशुद्ध प्ररूपणा करना इत्यादि इनके विषय प्रति विपरीत आचरण दुष्कृत कहे जाते हैं। लक्ष्मणा साध्वी जी को इन्हीं विराधनाओं के पीछे आठ सौ कोड़ा कोड़ी सागरोपम जितने काल तक संसार में भटकना पड़ा। सिद्ध भगवान के प्रति हमारा विपरीत आचरण क्या हुआ? अभव्य की तरह मान्यता हो जाना। जैसे सिद्ध कोई हो ही नहीं सकते हैं, यदि होते हैं तो इनमें चैतन्य जैसा क्या होता है! अनन्त सुख के प्रति कुशंका होना, वहाँ पर खाना-पीना, लाड़ी, वाड़ी, गाड़ी आदि नहीं है, तो सुख कैसा है? ऐसी अनेक मिथ्या मान्यता एवं प्ररूपणा व सिद्ध भगवान की मूर्ति की आशातना आदि करना, ये सभी सिद्ध भगवान के प्रति विपरीत 166 For Personal & Private Use Only Jain Education International www.jainelibrary.org

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