Book Title: Parmatma Banne ki Kala
Author(s): Priyranjanashreeji
Publisher: Parshwamani Tirth

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Page 174
________________ परमात्मा बनने की कला दुष्कृत गहाँ समय के पुराने वस्त्रों को पहन कर गद्गद् हृदय से प्रभु से प्रार्थना करती है कि 'हे प्रभु! आप सदैव मेरे हृदय में बसे रहना। हे जीव! तू अपनी पुरानी स्थिति को याद रखकर कभी अभिमान मत करना। तेरी अन्य बहनों के प्रति प्रेम भाव रखना। इनका सम्मान करना।' ___ राजा चकित होकर दूसरी रानियों को उसके ऐसे सुन्दर भाव को बताकर उसके प्रति का ईर्ष्याभाव छुड़वाता है। अपनी पटरानी पर और अधिक आदर भाव वाला बनता है। प्रार्थना कैसे चमत्कार का सर्जन करती है, यह इस प्रसंग से जाना जा सकता है। दुष्कृत्य गर्दा और देव-गुरु संयोग तथा इनकी प्रार्थना, इन तीनों पर बहुमान भी करने योग्य है। ये ऐसे हैं कि इनके सामने जगत् कचरा लगता है। अपनी होशियारी भी व्यर्थ लगती है। गर्दा, संयोग प्रार्थना और बहुमान, इन मोक्ष बीजों से साधक सुदृढ़ शुभानुबन्ध की स्थिति उपस्थित करता है। जैसे, सोने का कलश टूट जाने के बाद भी सोना उपस्थित रहता है, उसी प्रकार यहाँ मृत्यु भी हो गई तो गर्दादि चारों का अन्त होने पर इनका सार तत्त्व अर्क उपस्थित रहेगा और इससे भवान्तर में शुभ-परम्परा चलती रहेगी। गुणसेन राजा के द्वारा अग्निशर्मा तापस के पारणे का लाभ लेने में अनजानेपन से भी भूल हुई, वह अनुचित ही हुआ ऐसा लगता है; परंतु इससे अन्त में अग्नियुक्त रेत के उपसर्ग में भी वह तापस के जीव के प्रति विशेष क्षमाभाव रखता है तथा देव-गुरु सहित जैन धर्म का संयोग मिलना अति दुर्लभ जानकर उस पर समर्पित हो जाता है। इससे गुणसेन का शुभानुबन्ध भाव उपस्थित होता रहता है। आने वाले भवों में वे उत्तरोत्तर आगे बढ़ते हुए अन्त में समरादित्य-केवली-भगवान बने। इस प्रकार प्रार्थना बहुमान, गर्दादि द्वारा मोक्षपर्यंत उपयोगी बनती है। इस शुभ संस्कार से ऐसी परम्परा को देने वाले शुभ कर्म मुझे प्राप्त हों। अरिहंत आदि का संयोग सफल कहलाता है। संयोग मिलने के पश्चात् अरिहंत की सेवा करने से संयोग सार्थक गिना जाता है। इनकी सेवा सदैव करनी चाहिए, यही मानव जीवन की प्रभावना है। दूसरों की सेवा से जीव को सुख के बदले दुःख मिलते देखा है, किन्तु अरिहंतादि की सेवा से शाश्वत् सुख प्राप्त होता है। ___मैं चाहता हूँ कि तारक देवाधिदेव और सद्गुरु मुझे प्राप्त हुए हैं तो मैं इनकी सेवा उपासना करने के योग्य बनूं। लायक बनूं। उत्तम पुरूषों की सेवा अच्छी तरह से करने क अवसर योग्य आत्माओं को ही मिलता है। साथ ही योग्य बनकर सेवा करने वाला, सेल की कृपा का पात्र बनता है। इसलिए मैं कल्याणकारी आज्ञा में रमण करने वाला पात्र बनूं। Jain Education International For Personal Private Use Only www.jainelibrary.org

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