Book Title: Parmatma Banne ki Kala
Author(s): Priyranjanashreeji
Publisher: Parshwamani Tirth

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Page 151
________________ परमात्मा बनने की कला दुष्कृत गर्दा मेरी आत्मा को अपने पंजे में ले ले, इससे पहले ही मैं किसी दूसरे राज्य में चला जाऊँ। . इस प्रकार विचार कर वह राज्य छोड़कर चला गया। वह शीलसन्नाह मंत्री विचारसार नामक दूसरे राजा के पास गया और वहाँ उसने मंत्रीपद की याचना की। अनेक परीक्षा करने के बाद विचारसार राजा ने कहा कि, 'आपकी बुद्धि की परीक्षा के बाद हमें विश्वास है कि आप मंत्रीपद के स्थान को सुशोभित कर सकेंगे। परन्तु विशेष इतना ही पूछना है कि आपने इससे पहले किसी राजा की सेवा की है तो उसका नाम बताइये।' उसने जवाब दिया, 'माफ कीजिएगा, मैं उसका नाम नहीं बताऊँगा, क्योंकि उसका नाम लेने से हाथ में लिया हुआ ग्रास भी छोड़ना पड़ता हैं।' राजा ने कहा- 'आप यह क्या कह रहे हैं? क्या किसी का नाम लेने मात्र से ग्रास छोड़ना पड़ता है? आप गप तो नहीं हाँक रहे हैं। लो अभी भोजन मँगवाता हूँ।' इस प्रकार कहकर राजा ने भोजन का थाल मँगवाया। हाथ में एक ग्रास लेकर शीलसन्नाह से कहा कि, 'अब राजा का नाम बोलिए।' उसने कहा- 'रुक्मिणी।' इतना उच्चारण करते ही एक संदेशवाहक ने आकर राजा से कहा- 'चलिए! जल्दी चलिए। शत्रुओं ने राज्य पर आक्रमण कर दिया है। विकट परिस्थिति खड़ी हो गई है। अपनी सेना पीछे हट रही है। हार-जीत का सवाल है। आप शीघ्र पधारिये।' राजा ने तुरन्त हाथ में लिया हुआ कवल थाली में डाल दिया और युद्ध के लिए प्रयाण किया। शीलसन्नाह ने युद्ध भूमि में प्रवेश किया कि तुरन्त ही उसे मारने के लिए शत्रु सैनिक सामने आने लगे। . युद्धभूमि में प्रवेश करते ही शीलसन्नाह के ब्रह्मचर्य के प्रति अनुराग के कारण शासन देवी ने उन सैनिकों को स्तंभित कर दिया और आकाशवाणी की कि 'ब्रह्मचर्य में आसक्त शीलसन्नाह को नमस्कार हो।' - इस प्रकार घोषणा करके देवताओं ने उस पर पुष्पवृष्टि की। शीलसन्नाह यह सुनकर ऊहापोह करने लगा। इतने में तो विचार करते-करते उसे अवधिज्ञान उत्पन्न हो गया। ब्रह्मचर्य का प्रेम भी आत्मा को इतने उच्च स्थान पर पहुँचा सकता है तो जीवनभर ब्रह्मचर्य के साथ संयम पालूँ तो कैसा अद्भुत उत्थान होगा? ___वैराग्यभाव में आकर उसने वहीं पर दीक्षा ले ली। ... शीलसन्नाह मुनि विहार करते-करते एक बार क्षितिप्रतिष्ठित नगर में आये। वहाँ 149 Jain Education International 149 For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org

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