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परमात्मा बनने की कला
चार शरण
अधिक अद्भुत दरवाजा तैयार कर दिया।
किन्तु यह क्या? एक रात्रि में ही वह पूरा दरवाजा टूटकर गिर पड़ा। फिर दूसरे दिन भी वही बात। शिल्पी बिचारे अत्यन्त चिंतित हो गये। राजा ने महान् राजज्योतिषियों को बुलवाया और उनसे दरवाजा टूटने का कारण पूछा। _ 'राजन्! चित्रशाला की भूमि के अधिपति देवता आप पर क्रोधित हुए हैं। इस देवता ने ही मुख्य दरवाजे को रातों-रात तोड़कर गिरा दिया है। हाँ, यदि बत्तीस लक्षण युक्त बालक की विधिपूर्वक बलि दी जाए तो देवता प्रसन्न हो जाएंगे। फिर चित्रशाला का दरवाजा नहीं टूटेगा।' अपने ज्ञान द्वारा ज्योतिषियों ने सत्य बात कह दी।
राजा को अत्यंत चिंता हुई। एक ओर दरवाजे के अभाव में चित्रशाला की शोभा समाप्त हो जायेगी, देश-परदेश से देखने आने वाले राजा इत्यादि भी इस कमी को बताए बिना नहीं रहेंगे एवं दूसरी ओर बत्तीस लक्षण वाले बालक का वध करना पड़ेगा।
एक ओर हत्या का कलंक है, तो दूसरी ओर चित्रशाला का मोह तथा संसार में यश-कीर्ति प्राप्त करने की कामना का भूत है। - राजा का जीवन धर्ममय नहीं था। जिसके हृदय में करूणा धर्म हो, वह पाप से बच सकता है, किन्तु जिसके हृदय में यश-कीर्ति की लालसा व मोह हो, वह पाप से नहीं बच सकता। अन्त में राजा ने निर्णय किया कि बत्तीस लक्षण वाले बालक की बलि देकर भी चित्रशाला का दरवाजा तैयार किया जाय। . राजा ने तुरन्त मंत्रियों को बुलवाया। सलाह करके नगर में ढिंढोरा पिटवाया गया- 'हे नगरवासियों! राजा की चित्रशाला का दरवाजा बनाने के लिए उस भूमि का देवता बत्तीस लक्षण युक्त बालक की बलि माँग रहा है। अतः इसके लिए जो अपने बत्तीस लक्षण युक्त बालक को बलि हेतु देगा, उसे राजा की ओर से बालक के तोल के बराबर सोने की मोहरें दी जाएगी।'
राजा की आज्ञा के अनुसार सेवकों ने पूरे नगर में यह ढिंढोरा पीटना जारी रखा।
कौन तैयार होगा? सबको सोने की मोहरों से अधिक अपना जीवन एवं कुटुम्ब के सभ्य ही अधिक प्रिय होते हैं।
नहीं, नहीं, असार संसार में सब जगह ऐसा नहीं है। पूरा संसार स्वार्थ से भरा हुआ है। स्वार्थ की उत्पति जड़ वस्तुओं की लालसा से ही होती है। ... 'अरे भद्रा! तूने सुना? वजन के बराबर सोने की मोहरें!' ऋषभदत्त ने अपनी
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