Book Title: Parmatma Banne ki Kala
Author(s): Priyranjanashreeji
Publisher: Parshwamani Tirth

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Page 106
________________ परमात्मा बनने की कला दर्द नहीं था । पुत्र मरेगा, परन्तु आधी सम्पत्ति तो प्राप्त होगी। 'महारानी ने कहा- न्याय हो गया । पुत्र व सम्पत्ति, दोनों इस माँ को दे दिया जाए, अपने बच्चे को मरते हुए नहीं देख सकती, वही सच्ची माँ है। परमात्मा जब माँ के गर्भ में अवतरित हुए तब माता को सद्बुद्धि उत्पन्न हुई, इसलिए पुत्र का सुमतिनाथ नाम रखा गया। ऐसे विशिष्ट पुण्य के धारक, राग-द्वेष-मोह को क्षीण करने वाले वीतरागी परमात्मा ही हमारे अरिहंत देव होते हैं। अरिहन्त परमात्मा हमारे लिए अचिन्त्य चिन्तामणि रत्न के समान हैं। चिन्तामणि रत्न की प्राप्ति तप साधना से होती है। अट्ठम तप के द्वारा : साधना सिद्ध हो जाने पर साधक चिन्तामणि रत्न के समक्ष हाथ जोड़कर जो भी माँग या कामना करता है, वही वस्तु क्षणभर में आँखों के समक्ष उपस्थित हो जाती है। कहते हैं रत्न से यदि सप्तमंजिल के महल की इच्छा करें अथवा करोड़ों स्वर्ण मुद्राओं की कामना करें तो भी सब कुछ तुरन्त मिल जाते हैं। किन्तु हमारे अरिहंत परमात्मा तो चिन्तामणि रत्न से भी बढ़कर रत्न हैं। क्योंकि मांगने या सोचने से ही ये रत्न वस्तु को प्रदान करते हैं, किन्तु. अरिहन्त परमात्मा तो कभी सोचा भी न हो, वैसे अचिन्त्य फल को देने वाले होते हैं। चार शरण आचार्य हेमचन्द्रसूरि जी महाराज साहेब ने लिखा है कि यदि मानव को थोड़ी भी समझ आ जाए तो उस बुद्धि का एकमात्र उपयोग अरिहंत परमात्मा की भक्ति करने में लगा दे, अन्य सभी कार्य को छोड़ दे। जीवन में कभी भी कुछ भी मांगना नहीं पड़ेगा। अरिहंत परमात्मा के चरणों में मस्तक टिका दो। तुम्हारी कल्पना से कई गुणा ज्यादा ही प्राप्त होगा। प्रभु के शासन की सेवा के अतिरिक्त कुछ नहीं चाहना है । भवोभव तक प्रभु के सान्निध्य के अलावा कुछ नहीं चाहिए। अरिहंत परमात्मा इस भीषण भव रूपी समुद्र से पार उतारने में वाहन की तरह हैं। इस पर बैठने से यानि इनको भजने से वे हमें शीघ्र संसार से पार उतार देते हैं। अत: ‘ऐसे तारणतरण जहाज स्वरूप अरिहंत देव की शरण ही मेरे लिए योग्य है। मैं अष्ट प्रातिहार्य व समवशरण से युक्त देवाधिदेव की ही एक मात्र शरण स्वीकार करता हूँ', ऐसी कामना करनी चाहिए। Jain Education International 104 For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org

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