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परमात्मा बनने की कला
चार शरण जगत् को प्रकाशित करने वाले जगत्कल्याण कर्ता प्रभु को जन्म देने वाली रत्नकुक्षी माता, आपको वन्दन हो।' ऐसा कह कर इन्द्र महाराज माताश्री के समक्ष प्रभु का अन्य स्वरूप स्थापित करते हैं तथा मां को अवस्वापिनी निद्रा में सुलाकर परमात्मा को अभिषेक हेतु ले जाने के लिए पाँच रूप धारण करते हैं। प्रथम रूप से वह परमात्मा को स्वयं अपने करकमलों से उठाते हैं। द्वितीय रूप से परमात्मा के मस्तक पर छत्र धारण करते हैं। तृतीय रूप से हाथों में वज्र लेते हैं। चतुर्थ व पंचम रूप से परमात्मा के दोनों तरफ चामर ढुलाते हैं।
परमात्मा जन्म से अनन्त पुण्यशाली होते हैं। जन्म लेते ही एक करोड़ साठ लाख कलशों के द्वारा करोड़ों देवता परमात्मा का जल-अभिषेक करते हैं। एक कलश की नाल एक योजन प्रमाण की होती है।
जिनकी सेवा में इन्द्र देवता हाजिर होते हैं, करोड़ों देवता सेवा में उपस्थित होते हैं, ऐसे उत्कृष्ट पुण्य मात्र तीर्थंकर परमात्मा के ही होते हैं।
तीर्थंकर परमात्मा जब माता के गर्भ में पधारते हैं, तब से उनका अचिन्त्य प्रभाव प्रत्यक्ष नजर आने लग जाता है। कई बार परमात्मा का नामकरण भी उनके प्रभाव के अनुसार माता-पिता रखते हैं। जैसे अजितनाथ परमात्मा के माता-पिता सोगठबाजी का खेल खेला करते थे। हर बार माताश्री हार जाती थीं, किन्तु जब से दूसरे तीर्थंकर परमात्मा का माँ के गर्भ में अवतरण हुआ, माँ खेल जीतने लग गईं। इसलिए परमात्मा का नाम अजितनाथ रखा गया।
सुमतिनाथ परमात्मा का नाम कैसे रखा गया? कहते हैं उस समय राज्य में एक कठिन समस्या उत्पन्न हो गई थी। राजा के समक्ष एक ऐसा जटिल प्रश्न आया, जिसका समाधान महारानी ने अपनी मति से किया। एक पति के दो पत्नियाँ थी। पति की अनायास मृत्यु हो गई। दोनों पत्नी के बीच एक पुत्र था। नियमानुसार जिसका पुत्र होता है, उसे सम्पत्ति दी जाती है। अतः दोनों पत्नियाँ उसे अपना पुत्र कहने लगीं। स्वयं को उसकी माता बतलाने लगीं। ... महारानी ने कहा- 'इस समस्या का समाधान मैं करूँगी। एक पुत्र के दो टुकड़े कर दीजिए। पुत्र का आधा-आधा शरीर और आधी-आधी सम्पत्ति दोनों स्त्रियों को दे दिया जाया'
नकली माँ ने इस न्याय को स्वीकार कर लिया; पर असली माता ने कहा कि मुझे नहीं चाहिए मेरा पुत्र, इसके दो टुकड़े मत करो। मारने से अच्छा मेरा पुत्र उसके पास जीवित तो रहेगा। ऐसा कहकर वह फूट-फूट कर रोने लगी। दूसरी स्त्री के हृदय में जरा भी
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