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परमात्मा बनने की कला
पंचाचार पालक
ज्ञानाचार, दर्शनाचार, चारित्राचार, तपाचार, वीर्याचार; इन पाँच प्रकार के पवित्र आचार के सम्यक्ज्ञाता अर्थात् ज्ञ परिज्ञा और प्रत्याख्यान परिज्ञा वाले अर्थात् जानने वाले और पालन करने वाले होते हैं। इसमें इनको सम्यक्शास्त्रज्ञान, सम्यग्दर्शन, पंचमहाव्रतमय सम्यक्-चारित्र, बाह्य - आभ्यन्तर तप, इन चारों में प्रबल वीर्योत्साह पोषक, समर्थक, वर्धक विविध आचारों का ही पालन करने वाले होते हैं। ऐसे सुन्दर आत्मोपकारी और पर को लेशमात्र भी पीड़ा नहीं देने वाले स्वयं जीवन जीने के उपरान्त वे महर्षि परोपकार में भी लीन होते हैं । अवसर मिलने पर भव्य जीवों को मात्र पवित्र निष्पाप जीवन जीने का उपदेश देकर दोषत्याग और गुणप्राप्ति में उत्साहित करते हैं। योग्य जीवों को साधुता का पालन करवाकर घर का उत्तम उपकार करने वाले मुनिराज ही हैं।
1. इनका उपकार स्वयं के लिए एवं दूसरों के लिए एकान्तिक रूप से है, अपकार लेशमात्र भी नहीं हैं। केवल शुद्ध उपकार है।
चार शरण
2. वह उपकार आत्यंतिक अर्थात् अंतिम है, जिस उपकार के पश्चात् दूसरे उपकार की अपेक्षा ही नहीं रहे। क्योंकि जीव इस दोषत्याग और गुणपालन के उपकार से अन्त में अनन्त शाश्वत् सुख प्राप्त करके हमेशा के लिए कृतकृत्य बनेंगे, ऐसा इनका उपकार
है।
नास्तिक प्रदेशी राजा ने क्या किया, इसका दृष्टान्त यहाँ प्रस्तुत किया जा रहा है - प्रदेशी राजा की कथा
श्वेताम्बी नामक नगरी में प्रदेशी राजा राज्य करता था। वैसे तो राजा न्यायीप्रजापालक एवं शूरवीर था, किन्तु था वह नास्तिक । उसे किसी भी धर्म पर श्रद्धा नहीं थी । उसकी पटरानी का नाम सूर्यकान्ता था। सूर्यकांता विलासी एवं व्यभिचारिणी थी। परपुरुषों • में आसक्त रानी प्रदेशी राजा को हमेशा ठगती रहती थी।
राजा के मंत्री का नाम चित्रसारथी था। मंत्री परोपकार परायण एवं आस्तिक था। वह पार्श्वनाथ भगवान की परम्परा के केशीकुमार नामक श्रमण का परमभक्त भी था। एक - बार महाश्रमण केशीकुमार श्वेताम्बी नगरी में पधारे, तब परोपकार परायण मंत्री चित्रसारथी ने मन ही मन सोचा, किसी बहाने राजा को गुरुदेव के पास ले जाऊँ ताकि राजा आस्तिक बन सके।
एक दिन मंत्री चित्रसारथी घूमने के बहाने राजा को उस जगह ले आया,
जहाँ
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