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परमात्मा बनने की कला
चार शरण
प्रभु से हर समय प्रार्थना करनी चाहिए कि 'हे प्रभु! तेरी कृपा से सुगुरु का योग और उनके वचन को पालन करने का संबल प्राप्त हो।' मात्र एक भव ही नहीं, भवोभव इन्हीं की मांग करें।
इस पंचम आरे में महागीतार्थ गुरु की हमें कृपा प्राप्त हुई। प्रत्यक्ष रूप से भले ही केवलज्ञानी परमात्मा प्राप्त नहीं हुए हों, परन्तु लोकप्रकाश सूत्र के रचयिता अपने सूत्रों में लिखते हैं कि- 'हमें प्रधान मंत्र की प्राप्ति हुई है। इस मन्त्र की प्राप्ति से ही यह सिद्ध हो रहा है कि गुरु का प्रत्येक वचन तीर्थ स्वरूप है। प्रत्येक वचन में द्वादशांगी का समावेश है। गुरु के वचन ही शास्त्र हैं। अत: मन को गुरु के चरण-कमलों में समर्पित करना चाहिए।'
जो प्रत्येक परिस्थिति में चित्त को स्वस्थ बनाए रखते हैं; उत्तेजना-उद्वेग से रहित, हर्ष-शोक से रहित, प्रशांत व गंभीर उद्देश्य वाले होते हैं; सुख के प्रसंग अथवा दुःख के दिन में जिनके चेहरे की रेखा में जरा.भी अन्तर नजर नहीं आता है; पद की प्राप्ति पर हर्षोल्लास नहीं, अपयश की प्राप्ति पर खेद नहीं; ऐसे गुरु भगवंत को मेरा कोटि-कोटि
प्रणाम।
हिंसा-झूठ-चोरी-मैथुन-परिग्रह-क्रोध-मान-माया-लोभ-राग-द्वेष-कलह-पैशून्यरतिअरति-परपरिवाद-माया-मृषावाद-मिथ्यात्वशल्य; इन अठारह पाप स्थानकों से जो विरम गये, रूक गये हैं। पवित्र जीवन व उच्च परिणाम वाले मुनि सावध पाप से दूर रहते हैं। साधु जीवन में जीवदया का पालन किया जाता है, इसलिए आत्मा पापभीरू बन जाती है। थोड़ी भी गलती से आत्मा को भय लगता है। अतः प्रायश्चित कर पुनः अपनी आत्मा विशुद्ध बना लेते हैं। . पंच महाव्रतों को स्वीकार करके मुनि सर्व पापों से विरत हो जाते हैं। गृहस्थ दिनभर के पापों का प्रायश्चित लें तो कितना होगा? ज्ञानी भगवन्त कहते हैं- दुनियाँ के सभी पर्वत स्वर्णमय हो जाएं, उन सभी पर्वतों को दान कर दिया जाए, तो भी उन पापों का प्रायश्चित पूर्ण नहीं होता है। मात्र एक समय का भोजन ग्रहण करते हैं तो उनमें कितने पृथ्वीकाय, अप्काय, तेऊकाय, वायुकाय आदि जीवों की हिंसा होती है। अतः इन पापों से बचना है तो एक मात्र उपाय चारित्र है।
इतनी जानकारी हो जाने के पश्चात् भी जीव यदि चारित्र अंगीकार करके कष्टों को स्वीकार नहीं करेगा तो कर्मसत्ता किसी को भी नहीं छोड़ेगी। पापों का फल अनेक गुणा हमें भव-भव तक भुगतना ही पड़ेगा। परमात्मा महावीर के जीव ने त्रिपृष्ठ वासुदेव के भव में सेवक के कानों में गरम-गरम शीशा डलवाया था। सेवक को संगीत प्रिय लगा व कुछ
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