________________
परमात्मा बनने की कला
'कौन से समाचार ?' अमर ने पूछा?
'राजा की चित्रशाला की बलि तुझे बनाया जायेगा ।'
"हे हे... ऐसा नहीं हो सकता। मुझे क्यों बलि बनाएँ ?'
'अरे मित्र ! तेरे माता-पिता ने सोन की मोहरों की लालच में तुझे बलि के लिए बेच देने का राजा को वचन दे दिया है।'
चार शरण
मित्र की बात सुनते ही घबराहट से काँपता हुआ अमर दौड़ा सीधा माँ के पास'माँ! माँ! सच्ची बात है क्या? क्या तू बलि के लिए मुझे राजा को सौपेगी ?"
‘हाँ! हाँ!! खा पीकर बहुत तगड़ा हो गया है। बदमाशी, लड़ाई-झगड़ा करने के अतिरिक्त तुझे कुछ दिखाई नहीं देता, तो तेरी ऐसी दशा ही होगी।' आक्रोश में माँ ने
कहा।
अमर अत्यंत दुःखी हो गया। उसके मुख की लालिमा, शरीर का जोश व बदमाशी करने का स्वभाव; सभी एक ही क्षण में कपूर की तरह उड़ गये। जीवन में पहली बार माँ के चरणों में गिर पड़ा- 'माँ-माँ मुझे क्षमा करो। अब कभी बदमाशी नहीं करूँगा। माँ तेरी पूरी सेवा करूँगा और घर का सभी काम करूँगा। माँ बर्तन भी मैं मांजूंगा और कपड़े भी धोऊँगा । माँ मुझे मत बेच।'
सोने की मोहरों के लोभ में अंधी बनी हुई क्रूर माता अमर को लात मार कर दूसरे कमरे में चली गयी। फिर धरती एवं वृक्षों को भी कंपित कर दे, ऐसा करूण क्रन्दन प्रारम्भ हो गया। अमर सबके पास भटकता है और विनती कर रहा है कि मुझे बचाओ, मुझे बचाओ । जो मुझे बचायेगा, उसका मैं सेवक बन जाऊँगा, दास हो जाऊँगा । उसके घर का सब काम करूँगा। पिता के पास गया। मामा, मामी के पास भी गया। चाचा, चाची के पास भी गया; मित्रों से मिला । सबने अमर के सामने विवशता बताई। सबका एक ही उत्तर था कि 'तेरे माता-पिता ने तुझे बेच डाला है। अब राजा के सामने हमारी क्या चले ?'
अन्त में बलि के लिए निश्चित किया हुआ दिन आ गया। राजसेवक अमर को लेने के लिए उसके घर पर गये । 'खबरदार मुझे हाथ लगाया तो ।' राजसेवकों को जोर-शोर से अमर ने कहा ।
राजसेवक अमर की बात सुनकर घबरा गये, किन्तु राजा की आज्ञा का पालन त उन्हें करना ही था। अत: वे अमर को पकड़ने लगे तो अमर ने एक सेवक को मुक्का मारकर उसके दाँत उखाड़ दिये, किन्तु अन्त में राजसेवकों ने अमर के हाथ-पाँव बांध दिये।
Jain Education International
05
For Personal & Private Use Only
www.jainelibrary.org