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परमात्मा बनने की कला
अरिहंतोपदेश व्यवहार की तलहटी से निश्चय के शिरवरपर
धर्म रूपी द्वार में प्रवेश करते ही प्रारंभिक अवस्था में ही सीधे शुद्ध धर्म की बात नहीं की जानी चाहिए। यहाँ जीवों के भव्यत्व के अनुरूप धर्माचरण के लिए कदम बढ़ाना चाहिए। निश्चय नय की दृष्टि से सांसारिक फल की इच्छा से धर्म किया जाय तो वह धर्म कौड़ियों की कीमत का कहा जाता है, परन्तु व्यवहार नय में समन्वय करना पड़ता है। निश्चय के शिखर तक पहुँचने के लिए साधक को बीच में व्यवहार की सीढ़ी चढ़नी जरूरी होती है। शुद्ध धर्म की प्राप्ति के लिए चार चरण बताये गये हैं
1. अपुनर्बंधक 2. समकित् 3. देशविरति 4. सर्वविरति
जैसे-जैसे साधक शुद्ध धर्म का पालन करने लगते हैं, वैसे-वैसे और आगे बढ़ते जाते हैं, जैसे- श्रावक धर्म का पालन करने के पश्चात् साधु-धर्म को स्वीकार करते हैं, फिर उससे भी आगे वे निरतिचार व्रतों का पालन करने लगते हैं। शुद्ध से शुद्धतर और फिर शुद्धतम धर्म का पालन करने से केवलज्ञान और अन्त में सम्पूर्ण कर्मों को क्षय कर मोक्ष सुख को प्राप्त कर लेते हैं। इस तरह शुद्ध से शुद्धतम तक ले जाने के लिए शास्त्रों में चार चरण बताये गये हैं। इन चारों चरणों में से हम किस चरण में हैं, यह जानने योग्य है।
सर्वप्रथम सामर्थ्य हो तो सर्वविरति ग्रहण करें। यदि प्रबल सामर्थ्य योग न बने तो देशविरति चारित्र स्वीकार करें! अन्यथा समकित यानि सम्यग्दर्शन निर्मल बनाकर शुद्ध बनने का प्रयत्न करना चाहिए। इतनी भी शक्ति यदि नहीं हो तो अपुनर्बंधक में स्थिर होना
'अपुनबंधक' अवस्था अर्थात् जो तीव्र कषाय भावों से पाप नहीं करता है। जिसे नये भव बढ़ाने का राग नहीं होता, जो औचित्य के पालन में तत्पर रहता है। तीनों लक्षणों के पालन करने से साधक 'समकित' प्राप्त करता है। यानि देव-गुरु धर्म पर श्रद्धा-आदर, भक्ति, बहुमान के भाव आते हैं। इससे आगे जाकर स्थूल व्रत ग्रहण करने के भाव आते हैं। अंशतः यानि थोड़ी क्रिया, अणुव्रत आदि जीवन में ग्रहण करते हैं। वह 'देशविरति' कहलाती है। यही देशविरति आगे 'सर्वविरति' प्राप्त कराती है। यह पूर्वाभ्यास है। श्रावक-धर्म का अच्छे से पालन करना, एकासना आदि तप-त्याग, पर्वतिथि की आराधना, स्वाध्याय, वैय्यावच्च करना, श्रावक धर्म की आराधना करते हुए साधु धर्म में आना। परमात्म वचनों का निरतिचार पालन व गुरुजनों की वैयावच्च पूर्वक संयम की साधना करते-करते केवलज्ञान तक पहुँचना है।
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