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परमात्मा बनने की कला
चार शरण
मन कहे कि जगत् में अरिहंत से बढ़कर देखने योग्य अन्य कुछ भी नहीं है, वन्दन करने योग्य कोई देव नहीं है, स्तुति, गुणगान और सेवा करने योग्य अरिहंत की तुलना में कोई दूसरी विभूति नहीं है, इनकी शरण स्वीकार करने से हृदय में ऐसा अनुभव होता है, जैसे कि सब कुछ प्राप्त हो गया। इनमें समा जाऊँ, मेरा जीवन मैं इनके सम्पूर्ण आदेश से परिपूरित बना दूँ, और संसार से छूट जाऊँ। साधक को ऐसे उच्च विचार रखने चाहिए। शरण स्वीकारने की चाबी
यहाँ यह बात ध्यान में रखनी है कि शरण को स्वीकार किस प्रकार किया जाता है? दृष्टान्त से समझें- जंगल में खूब धन लेकर कोई चला जा रहा हो, उसके पीछे यदि कोई लूटने वाले लग जाए तो वह कितने भयपूर्वक दौड़ने लगता है? अब सामने से कोई शस्त्रधारी पक्का रक्षक (मिलेट्री) मिल जाए, तब कितने विश्वास और कितनी ज्यादा गरज से उनसे शरण मांगता है? 'तू चिन्ता मत कर। किसकी हिम्मत है जो तुझे कोई हानि पहुंचा सके?' यदि इस प्रकार आश्वासन मिलता है तो उसके मन में शरण स्वीकारने का कितना गद्गद् भाव व आनन्द आ जाता है? गद्गद् हृदय से कैसे उसकी शरण को स्वीकार कर लेता है। इसी प्रकार स्वयं को लगना चाहिए कि इस संसार अटवी में कर्म और कषाय रूपी लुटेरों से हम सभी पकड़े गये हैं। इससे अनन्त आत्म-धन नाश और जन्म मरण की परम्परा निश्चित है। इस स्थिति में, जब हमें निश्चित रूप से बचाने वाले अरिहंत आदि चारों की शरण प्राप्त हो चुकी है तो अवश्य इनकी शरण में जाकर प्रार्थना करनी चाहिए कि, 'हे अरिहंत, सिद्ध, साधु और केवली प्ररूपित धर्म, मुझे केवल आपकी ही शरण है, दूसरा कोई मेरा आधार नहीं। कोई मेरा रक्षणहार-तारणहार नहीं, मित्र नहीं, नाथ नहीं, आप ही मेरे प्राण, शरण, नाथ हो।'
हृदय में कर्म और कषाय के तीव्र भय के साथ ये शरण स्वीकार करें। अर्थात् 'अरिहंता मे शरणं' बोलने के साथ कर्म कषाय की भयंकर वेदमा का अनुभव हो। अरिहंत आदि चारों शरण का इस वेदना से बचाने का अकाट्य सामर्थ्य समझ में आता हो; और इसके साथ ही जीवन में इसकी आवश्यकता का अनुभव भी हो। इस प्रकार कर्म-कषाय का भय, जिससे मुक्त करने वाले अरिहंत आदि चारों के प्रति रक्षण की तीव्र श्रद्धा और कर्म-कषाय से मुक्ति की आवश्यकता; ये तीनों मिल जाएंगे तभी सच्ची शरणागति का भाव खड़ा होगा।
शरण स्वीकारने का उच्च भाव लाने के लिए यहाँ एक बात समझने जैसी है। मरण शय्या पर पड़ा हुआ मानव कितना ज्यादा गद्गद् और द्रवित हृदय से अरिहंत आदि
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