Book Title: Parmatma Banne ki Kala
Author(s): Priyranjanashreeji
Publisher: Parshwamani Tirth

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Page 85
________________ परमात्मा बनने की कला चार शरण की शरण हमारे दूर के सम्बन्धी कहलाते हैं। इसका नाम ही शरण कहलाता है। शरण स्वीकारने से क्या फल मिलता है? तो कहते हैं कि सभी प्रकार की आपत्तियों से अपनी रक्षा होती है। जब हृदय में मात्र अरिहंत, सिद्ध, साधु व धर्म को स्थान दे दिया जाए, अन्य सभी का त्याग कर दिया जाए। इन चारों शरणों से ही मेरा सच्चा सम्बध है, अन्य से नहीं; ऐसा स्वीकार हो, तब वह सच्चा समर्पण कहलाता है। - समर्पण की बात तो अभी बहुत दूर है। पहले धर्म में व्यवस्थित हो जाना है। क्योंकि जिसने भी अरिहंत आदि चार शरण को स्वीकार किया, वही जगत् में निर्भय बनता है। जिसने अपने अन्तःकरण में इनको बैठाया, उनके ग्रह, नक्षत्र योग अनुकूल हो जाते है। ये सभी अरिहंत के दास हैं। उनकी सेवा करने वाले हैं। अरिहंत आदि के प्रति अस्थि-मज्जा राग करना चाहिए। ये चारों ही मेरे जीवन में प्रधान हैं। आपत्ति या कष्ट आए तब भी हमें अपनी श्रद्धा को स्थिर रखना चाहिए। श्रद्धा होतो ऐसी ___एक समय किसी देश में वर्षा नहीं हो रही थी। कितने समय से पानी की बूंद नहीं गिर रही थी। उस समय सभी लोग मिलकर प्रार्थना करने के लिए चर्च में गये। उस दिन एक छोटी-सी लड़की छाता लेकर आई थी। लोगों ने पूछा तुम छाता क्यों लाई हो? उसने बड़े प्यार से कहा- 'यदि प्रभु से प्रार्थना करेंगे तो बारिश आयेगी न, इसलिए भीगने से बचने के लिए छाता लेकर आई हूँ।' श्रद्धा हो तो ऐसी। कहते हैं कि परमात्मा की शरण स्वीकारने के पश्चात् कभी स्वयं के जीवन में अच्छाई नजर नहीं आए तो भी हमें उसे बुरा नहीं मानना, अच्छा ही मानना चाहिए। क्योंकि परमात्मा की शरण हमारे लिए आगे कुछ न कुछ अच्छा ही करने वाली है। सगर चक्रवर्ती के 60,000 पुत्रों की घटना में देखें। जब 60,000 पुत्र जल रहे थे तब इन्द्र उन्हें बचाने नहीं आए, किन्तु इनके साथ दूसरे सेवक जलकर मरने लगे तो इन्द्र आकर उनको रोकने लगे। यह सब पुण्य की बात है। अतः अरिहंत परमात्मा की शरण पुण्य को बढ़ाने वाली है। कर्म सत्ता की कैसी विचित्रता है। सेवक को बचाने आने में पुण्य ही कारण है। देवता भी पुण्य हो तो ही आते हैं। अतः पुण्य का पुंज एकत्रित करें। अरिहन्तों की शरण स्वीकारने से, उनकी भक्ति से सर्व पुण्य प्रबल होते हैं। अतः इनकी कृपा प्राप्त करें। जिस किसी प्रकार से पुण्य बढ़ता हो, उसी प्रकार की भक्ति-सेवा करनी चाहिए। सर्वत्र पूछकर भी, जानकारी प्राप्त कर गुरुजनों द्वारा बताए मार्ग पर चलकर पुण्य उपार्जन करें। सच्चे देव-गुरु के मिल जाने के पश्चात् इस संसार में किसलिए दूसरों से मांगना Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org

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