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परमात्मा बनने की कला
चार शरण
महावीर कहा करते हैं, तीर्थंकर एक अवसर्पिणी या उत्सर्पिणी में चौबीस ही होते हैं, तो यह पच्चीसवाँ तीर्थंकर कहाँ से आया? मुझे मेरे भगवान् के वचनों पर दृढ़ श्रद्धा है, मैं इसके पाखण्ड में फंसने वाली नहीं हूँ।'
सारा नगर आया किन्तु सुलसा दर्शन करने नहीं आई। यह देख अम्बड़ हर्षित हो उठा। ओह...! कैसी दृढ़ श्रद्धा है जैन धर्म पर इस श्राविका को, भगवान् महावीर ने जो धर्मलाभ कहलवाया, वह योग्य ही है।
एक दिन प्रातःकाल अपनी सारी माया समेटकर अम्बड़ सुलसा श्राविका के गृहांगन में जा पहुँचा। सुलसा ने अतिथि के योग्य सत्कार कर पूछा- 'कहाँ से आए हो? क्या काम है?' अम्बड़ ने कहा- 'मैं चम्पापुरी से आया हूँ। भगवान् महावीर ने तुम्हें धर्मलाभ का सन्देशा भेजा है।' भगवान् महावीर का नाम सुनकर सुलसा की रोम-राशि विकस्वर हो गई। कैसी अगाध करूणा की भगवान् ने, मुझ जैसी सामान्य नारी को धर्मलाभ कहलवाया। धर्मलाभ, सुनते ही सुलसा पानी-पानी हो गई। तुरन्त खड़ी होकर प्रभु जिस दिशा में विचरण कर रहे थे, उस दिशा में स्वयं के मन में प्रभु का स्मरण कर बारम्बार पंचांग प्रणिपात वन्दन किया और बोल उठी... 'हे प्रभु! प्रभु! ये आपकी कितनी बड़ी दया है कि आपने पाप घर में बैठी हुई मुझे याद किया? आपने मेरी खबर ली? मेरी क्या औकात है? विषय वासना के कीचड़ में फंसी हुई मेरे ऊपर इतनी अधिक करूणा!' बोलते-बोलते उसकी आँखें प्रभु के अनहद उपकार से भरभरा गयीं। रोते-रोते कहने लगी'मेरे नाथ... आप चिरंजीवी रहो, अहो, आपके बड़े-बड़े गणधर महाराजा और इन्द्र जैसे सेवक। कैसे सुयोग्य और कहाँ पाप से भरी हूँ मैं? प्रभु! अब तो अन्त तक दया करना कि जिससे संयम-तप-ध्यान में चढ़ जाऊँ, आपके एक मात्र आधार से भवसागर पार हो जाऊँ।'
___अम्बड़ यह देखकर पानी-पानी हो गया। आँखों में आँसू भरकर कहने लगा'सुलसा! तुम धन्य हो, तुम्हारा जीवन धन्य है, इतनी अपार श्रद्धा भगवान् महावीर प्रभु पर रखती हो। जगत् में इन्हें ही सारभूत मानकर दूसरी कोई भी इच्छा, आतुरता तुम्हारे मन में उठती ही नहीं है। संसार में बैठी हो, फिर भी प्रभु के प्रति ऐसा आत्मसमर्पण, निःसंदेह आश्चर्यकारक है, आपको मेरा कोटि-कोटि वन्दन है।'
ऐसा कहकर अम्बड़ स्वयं के सम्यक्त्व को निर्मल करता हुआ वहाँ से चला
गया।
__ अरिहंत देव की शरण। ये ही एक नाथ हैं, ये ही तारणहार हैं, सकल सुख के बीज हैं, यही सभी प्रकार के भय से छुड़ाने वाले हैं, ये ही दर्शनीय; वन्दनीय, सेवनीय हैं।
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