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परमात्मा बनने की कला
अरिहंतोपदेश
का अर्जित फल है। यदि यह फल मीठा और रुचिकर है तो हमें सुख की अनुभूति होती है और यदि यह फल कड़वा और अरूचिकर है; तो दुःख की अनुभूति कराता है। हम उसे दुःख के रूप में व्यक्त करते हुए भोगते हैं। सचमुच सुख और दुःख दोनों भोग्य हैं। सुख और दुःख को जीवन के पैमाने पर यदि नापें तो हमें स्पष्ट दिखाई देगा कि हर प्राणी के जीवन में सुख क्षणिक है और जिसे वह प्रमाद वश भोग लेता है। शेष केवल दुःख ही बचता है, जिसे यदि ज्ञानियों की भाषा में कहें तो यह संसार दुःखानुबंधी है।
ज्ञानी फरमाते हैं कि यह संसार दुःखरूप, दुःखफलक और दुःखानुबन्धी है। दुःखरूप कहने का तात्पर्य संसार दुःखवाला है, ऐसा नहीं बल्कि संसार स्वयं दुःख है, दुःख स्वरूप है। इसमें दिखने वाला विषय सुख ही दुःख है, सुखाभास है; कैसे ? जिस प्रकार शरीर में खुजली होने पर खुजाल चलती है, खुजाल लेने पर दुःख का क्षणिक प्रतिकार और क्षणिक सुखाभास होता है। वैसे ही पूर्व में उत्पन्न हुए तृष्णा की खुजाल दुःख के विषय सम्पर्क से क्षणिक प्रतिकार और क्षणिक विषयसुख भोगने से सुखाभास होता है। परन्तु बाद में खुजली की तरह भयंकर नयी तृष्णा, खुजाल और नये दुःख को जगाने वाली बनती है। इसलिए वस्तुत: संसार की कोई भी बात ऐसी नहीं है जो दुःखस्वरूप नहीं है। जन्म, जरा, मृत्यु, रोग, शोक ये ही महान् दुःख हैं और यही संसार है। इसलिए संसार दुःखरूप है।
पुनः संसार दुःखफलक इस प्रकार कहा गया है कि संसार भवान्तर में यानि दूसरी गति में पुन: जन्म, जरा, मृत्यु, रोग, शोक इत्यादि दुःख देता है; इसलिए फलरूप में भी संसार दुःख देने वाला है। इसका कारण यह है, पूर्व कर्म के हिसाब से जन्म-जरामृत्यु आदि अनेक प्रकार से भोग को मजबूत करता है। इससे पुन: नया जन्मादि दुःख रूप संसार खड़ा हो जाता है। इसलिए संसार का फल भी दुःख ही देने वाला है। अत: संसार दुःखफलक है।
एक बार कर्म उदय में आ गया, अब चला गया, फिर उदित नहीं होगा। ऐसा भी नहीं होता है, बल्कि अनेक जन्मों तक दुःख की परम्परा का सर्जन करता है । अर्थात् अनेक भवों में जाकर और नये-नये अशुभ कर्म को बांधता है, दुःख रूपी भवों को उत्पन्न करता है। ऐसे कर्म बीज हमारा वर्तमान संसार पैदा करने वाले होने से जन्म आदि सभी दुःख अन्य भवों में दुःख की परम्परा चलाने वाले भी हैं। अर्थात् संसार दुःखानुबन्धी है।
प्रत्येक वस्तु को चार निक्षेपों से घटाया जाता है। नाम, स्थापना, द्रव्य और भाव । संसार शब्द को चार निक्षेपों से किस प्रकार घटाया गया है, यह बताते हैं- कागज में
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