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परमात्मा बनने की कला
चित्त, वित्त और पात्र
ये तीनों वस्तुएँ एक साथ मिलती हैं, तब इनके आधार पर फल की प्राप्ति होती है। चित्त अर्थात् मन के परिणाम; यानि परिणाम बहुत उच्च होने चाहिए। वित्त अर्थात् किसी को दी जाने वाली वस्तु, यानी वस्तु भी शक्ति अनुसार श्रेष्ठ होनी चाहिए। पात्र से तात्पर्य यह है कि जिसे दिया जा रहा है, वह पात्र भी सुपात्र होना चाहिए | क्योंकि सुपात्र में दिये ये का परिणाम श्रेष्ठ होता है जैसे- शालीभद्र के जीव ने पूर्व भव में खीर का दान जैन साधु के बदले किसी अन्य संन्यासी को यदि दिया होता तो ऐसा श्रेष्ठ फल नहीं मिलता। अर्थात् श्रेष्ठतम पात्र हमें सुदेव - सुगुरु का मिल गया है। इसके साथ चित्त और वित्त हमारा जितना श्रेष्ठ होगा, उतना उत्तम फल प्राप्त होगा।
दो महिलाएँ थीं, दोनों में मित्रता थी, परन्तु एक अन्य धर्म को और दूसरी जैन धर्म को मानती थी। पहली सहेली उत्तम से उत्तम द्रव्यों से अपने देव की पूजा करती थी । दूसरी शक्ति अनुसार सामान्य द्रव्य से अरिहंत भगवान् की अष्ट प्रकार की पूजा करती थी। ' दोनों ऊँचे भावों से प्रभु की सेवा पूजा करती रहीं। किसे ज्यादा लाभ होगा ? यहाँ ज्ञानी भगवतों का यही कहना है कि जिसके पास सामान्य द्रव्य व भाव है, पर पात्र श्रेष्ठ है उसे उत्तम फल प्राप्त होगा, किन्तु जिसके पास उत्तम द्रव्य है, उत्तम भाव भी है परन्तु श्रेष्ठ पात्र नहीं होने से उसको जैन महिला को मिले फल में से अनन्तवें भाग जितना फल भी नहीं मिलेगा। क्योंकि पात्र उत्तम नहीं है । परन्तु तीनों उत्तम हो तो अचिंत्य फल प्रदान करता है।
अरिहंतोपदेश
दूसरे उदाहरण से समझाते हैं। दो सेवक अपने-अपने सेठ जी की खूब मन लगाकर सेवा करते हैं। उनमें एक सेठ जी के पास साधारण संपत्ति है, और दूसरे सेठजी के पास करोड़ों की संपत्ति है। दोनों सेठ जी अपने सेवक के कार्य से खुश होकर अपनी प्रसन्नता को व्यक्त करने के लिए सेवक को क्या देंगे? यदि सेवक का वेतन 1000 रु. का होगा तो पहला सेठ ज्यादा से ज्यादा 1500 रु. का वेतन कर देगा। वहीं दूसरा सेठ अपने सेवक को 15000 रु. देकर अपनी खुशी व्यक्त करेगा। इसी तरह अन्य देवी-देवता जो स्वयं अपूर्ण हैं, असर्वज्ञ हैं, सरागी हैं, उनकी भक्ति चाहे जितनी भी ऊँचे भावों से की जाये, वे हमें क्या फल दे सकते हैं? थोड़ा ही फल हमें मिल सकता है जबकि वीतराग की सच्चे भावों से की गई थोड़ी भी भक्ति / पूजा हमें अनन्त गुणा फल देने वाली बनती है।
पुरुषार्थ के लिए वीर्यान्तराय कर्म का क्षयोपशम होना चाहिए। शक्ति अनुसार हमारा पुरुषार्थ नहीं होगा तो वीर्यान्तराय कर्म का बन्ध होता है, और भी शक्ति रहित बनता है । जितनी शक्ति हमें प्राप्त हुई है, उससे कुछ अधिक पुरुषार्थ करना चाहिए। जितना
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