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परमात्मा बनने की कला
आद्य मंगल 3. अर्हन् - जो सम्पूर्ण विश्व के जीवों के लिए पूजनीय है।
अरिहंत परमात्मा को नमस्कार करके शास्त्रकार मंगल करते हैं।
अरिहंत भगवान् के चार विशेषण - 1. वीतराग, 2. सर्वज्ञ 3. देवेन्द्रपूजित और 4. यथास्थित वस्तु को कहने वाले, ऐसे तीन भुवन के सद्गुरु। ये चार विशेषण जगद्गुरु परमात्मा के चार महान् अतिशय को बताते हैं। पहले चार विशेषण को समझ लें। वीतरागआदिचार विशेषणों की सार्थकता 1. वीतराग- 'वीतः अपेतो रागः' जिनके राग-द्वेष चले गये। 'राग' अर्थात् आत्मा में
आसक्ति के परिणाम जगाने वाला मोहनीय कर्म, आत्मा में अप्रीति कराने वाला कर्म-'द्वेष'। मिथ्या ज्ञान के परिणाम जगाने वाला कर्म-मोह। रागादि यानि राग-द्वेष और मोह जिनके समाप्त हो गये, वे वीतराग कहलाते हैं। जो मोह को आत्मा में दबाकर कर्मोदय को रोक कर रखते हैं, वे उपशान्त-मोह-वीतराग होते हैं। परन्तु यहाँ पर सर्वथा क्षीणमोही और छमस्थ (अज्ञान) भाव से रहित ऐसे वीतराग विशेषण को
लेना है। इसलिए वीतराग के साथ सर्वज्ञ का विशेषण लिखा गया है। 2. सर्वज्ञ- भूतकाल, वर्तमान काल और भविष्य काल के सभी द्रव्यों और सभी पर्यायों
को जो जानते और देखते हैं, उन्हें सर्वज्ञ कहते हैं। जो तीन लोक और तीन काल की किसी भी वस्तु, पदार्थ से अपरिचित नहीं हैं। वे सब कुछ जानते हैं। उन्हें देखते हैं, हर जीव के अनन्त भव चलचित्र की तरह दिखाई देते हैं। निमित्त शास्त्रादि के आधार पर त्रिकालवेत्ता भी व्यवहार में सर्वज्ञ कहे जाते हैं, परन्तु वे सरागी होते हैं। इसलिए सर्वज्ञ के साथ वीतराग विशेषण रखा गया है। सर्वज्ञता प्राप्त करने के लिए उत्तम से उत्तम साधना करनी पड़ती है। प्रमाद का त्यागकर स्वाध्याय, ध्यान में निरत रहना पड़ता है। तब केवल ज्ञानी सर्वज्ञ कहलाते हैं। जहाँ प्रमाद है, वहाँ केवल ज्ञान नहीं
होता। .
3. देवेन्द्रों से पूजित- वीतराग एवं सर्वज्ञ तो सामान्य केवलज्ञानी भी होते हैं। सर्वज्ञ दो प्रकार के होते हैं- तीर्थंकर सर्वज्ञ, सामान्य केवलज्ञानी सर्वज्ञ। तीर्थंकर देव विशिष्ट पुण्य वाले होते हैं। तीर्थंकर परमात्मा को केवलज्ञान प्रकट होते ही देवता समवसरण की रचना करते हैं, जो अष्ट प्रातिहार्य से सुशोभित होता है। परमात्मा के बैठने का सिंहासन रत्नजड़ित स्वर्ण से युक्त होता है। मस्तक के पीछे आभामण्डल होता है। परमात्मा की देह से बारह गुणा ऊँचा अशोकवृक्ष उनके पीछे होता है। मस्तक के ऊपर तीन छत्र होते हैं। देवदुन्दुभी, दिव्यध्वनि, पुष्प वृष्टि आदि की रचना कर देवों के देव
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