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पंडित टोडरमलजी के विशाल एवं गंभीर प्राध्यात्मिक साहित्य को देख उन पर शोधकार्य करने का मेरा विचार चल ही रहा था कि पंडितजी की जयन्ती के अवसर पर सन् १६६८ ई० में स्वर्गीय पंडित चैनसुखदासजी ने प्राग्रह के स्वर में मुझे उन पर शोध-कार्य करने के लिए काहा, जिसे मैंने सहर्ष स्वीकार कर लिया। पंडित टोडरमल स्मारक ट्रस्ट के संचालकगण भी यह चाहते ही थे। उन्होंने सर्व प्रकार के सहयोग का आश्वासन देते हुए उक्त कार्य को शीघ्र ही प्रारम्भ करने का अनरोध किया। यथाशीघ्र मैंने डॉ० देवेन्द्रकुमारजी जैन, तत्कालीन हिन्दी विभागाध्यक्ष, इन्हौर विश्वविद्यालय, इन्दौर के निर्देशन में अपना शोधकार्य प्रारंभ कर दिया ।
__ अपने इस अध्ययन काल में सबसे बड़ी कठिनाई पंडितजी के जीवन सम्बन्धी तथ्यों की प्रामाणिक जानकारी संकलित करने में हुई। विभिन्न स्रोतों से अधिक से अधिक प्रामाणिक जानकारी प्राप्त करने का पूरा-पूरा यत्न किया गया एवं उसमें बहुत कुछ सफलता भी प्राप्त हई । मैं चाहता था कि जयपुर राजघराने व शासकीय प्रालेख विभाग से उनके सम्बन्ध में मौलिक प्रमाणों को इकट्ठा करूं, परन्तु यह संभव नहीं हो सका।
उनके प्राप्त साहित्य के पालोड़न में मैंने अपनी दृष्टि से कोई कसर बाकी नहीं रखी है । उसका गंभीर और बारीकी से पूरा-पूरा अध्ययन किया है, विशेषकर मोक्षमार्ग प्रकाशक की तो पंक्ति-पंक्ति से मैंने घनिष्टतम संपर्क स्थापित किया है । उनके सम्पूर्ण साहित्य का भाषा और शैली की दृष्टि से एवं ऐतिहासिक दृष्टिकोण से तो अध्ययन प्रस्तुत किया ही है। साथ ही उनके दार्शनिक और सैद्धान्तिक पक्षों का भी, उनके पूर्ववर्ती समग्र दिगम्बर जैन साहित्य-परम्परा के परिप्रेक्ष्य में अध्ययन प्रस्तुत किया है। संदर्भ साहित्य विशेषतः हस्तलिखित साहित्य का प्राप्त करना स्वयं अपने आप में एक कठिनतर कार्य है। कई ग्रन्थों के अब तक प्रकाशित न होने से, हस्तलिखित प्रतियों से अध्ययन करना पड़ा है। यह सब कितना श्रम-साध्य कार्य है, इसे विद्वद्वर्ग अच्छी तरह जानता है ।
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