Book Title: Nay Nirupan
Author(s): Shivcharanlal Jain
Publisher: Gyansagar Vagarth Vimarsh Kendra Byavar

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Page 13
________________ आचार्य ज्ञानसागर के वाड्मय में नय-निरूपण 4. "अभेदानुपचारतया वस्तु निश्चीयत इति निश्चयः ।" जो अभेद और अनुपचार से वस्तु का निश्चय कराता है वह निश्चय है । (आलापद्धति - 9) 5. "जो पस्सदि अप्पाणं अबद्धपुढे अणण्णयं णियदं ।। अविसेसमसंजुत्तं तं सुद्धणयं वियाणीहि ॥" . (समयप्राभृत) - जो आत्मा को अबद्ध, अस्पृष्ट, अनन्य, नियत, अविशेष (सामान्य) और असंयुक्त देखता है वह शुद्धनय (शुद्ध निश्चय नय) जानना चाहिए । निश्चय के दो भेद हैं, 1 - शुद्ध और अशुद्ध निश्चय नय । आगम वर्णित शुद्ध द्रव्यार्थिक (परमभावग्राही) को शुद्ध निश्चय अध्यात्म में निरूपित किया है । 6. "आत्माश्रितो निश्चयोनयः"। आत्मा ही जिसका आश्रय है वह निश्चय नय है । (समयसार, आत्मख्याति - 272) अन्यत्र भी "स्वाश्रितो निश्चयः" कहा गया है । 7. "अभिन्नकर्तृकर्मादिविषयो निश्चयो नयः"। कर्ता, कर्म, क्रिया आदि को अभिन्न एक विषय करनेवाला निश्चय नय है" । __ (तत्त्वानुशासन / 59, अनगार धर्मामृत / 1/102) व्यवहार नय 1. "पाडिरूवं-पुण वयणस्थणिच्छयो तस्स ववहारो।" वस्तु के प्रत्येक भेद के प्रति शब्द का निश्चय करना व्यवहार नय है । (धवला 1/1) 2. "संग्रहनयक्षिप्तानामर्थानां विधिपूर्वकमवहरणं व्यवहार ।" संग्रह नय के द्वारा ग्रहण ___किये गये पदार्थों का विधिपूर्वक अवहरण अर्थात् भेद करना व्यवहार है । (सर्वार्थसिद्धि 1/33) जहाँ तर भेद संभव है वहाँ तक इसकी प्रवृत्ति है ।। "भेदोपचाराभ्यां व्यवहरतीति व्यवहारः।" जो बेद और पचार से व्यवहार करता है वह व्यवहार है । वस्तु रूप से भेद होने पर भी जो अभेद, एकत्व का ग्राही है वह उपचार है। "जो सियमेदुवयारं धम्माणं कुणइ एगवत्थुस्स।" जो मणियों व्यवहारो ...... एक अभेद वस्तु में जो धर्मों का अर्थात् गुण और पर्यायों का भेदरूप उपचार करता है वह व्यवहार नय कहा जाता है । 5. "पराश्रितो व्यवहारः ।" पर पदार्थ के आश्रित कथन करना व्यवहार है । (समयप्राभृत - आत्मख्याति - 272) "व्यवहरणं व्यवहारः स्यादिति शब्दार्थों न परमार्थः।" स यथा "गुणगुणिनो सदभेदे भेदकरणं स्यात् ।" विधिपूर्वक भेद करने का नाम व्यवहार है । यह इस निरुक्ति द्वारा किया गया शब्दार्थ है - परमार्थ नहीं । जैसा कि यहाँ पर गुण और गुणी में सत् रूप से अभेद होने पर भी जो भेद करता है व्यवहार नय है । (पञ्चाध्यायी / पू. / 522)

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