Book Title: Nay Nirupan
Author(s): Shivcharanlal Jain
Publisher: Gyansagar Vagarth Vimarsh Kendra Byavar

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Page 96
________________ आचार्य ज्ञानसागर के वाड्मय में नय-निरूपण 89 19. यथाजात नग्न परम दिगम्बर अवस्था रूप व्रत स्वीकार किये बिना आत्मानुभवरूप अभेद रत्नत्रय की प्राप्ति नहीं हो सकती । इसलिए तद्भव रूप से उसको (दिगम्बरत्व को) भी मोक्षमार्ग कहा जाता है । (विवेकोदय, पृ. 158) प्रवचन में से उद्धृत निम्न वचनामृत 20. शुद्धोपयोगी और शुभोपयोगी दोनों ही मोक्षमार्गी हैं दोनों ही धर्मात्मा हैं..... (शुद्धोपयोगी) साक्षात् मोक्ष को प्राप्त कर लेता है । ...... शुभोपयोगी जीव अपूर्ण धर्मात्मा होता (पृ. 7) 21. ऐसे ही जो मनुष्य शुभभाव को ही पर्याप्त समझ रहा है वह शुद्धता को कैसे प्राप्त हो सकता है ? वह तो अपने विचार के अनुसार सदा अशुद्ध ही बना रहेगा । (पृ. 46) 22. अशुभ-भाव से शुभ-भाव पर आये बिना शुद्ध-भाव पर नहीं पहुंचा जा सकता है। ___(पृ. 46) 23. चतुर्थादि सकषाय गुणस्थानों में जो सम्यग्दर्शन होता है वह व्यवहार-सम्यग्दर्शन कहलाता __ है। .... निश्चय (वीतराग) सम्यग्दर्शन तो महर्षि लोगों के परम समाधि काल में ही बनता है। (पृ. 18) साधारण विचारधारा को सामान्य दृष्टि या द्रव्यार्थिक नय कहते हैं और असाधारण को विशिष्ट-दृष्टि या पर्याय-दृष्टि कहते हैं । (पृ. 67) जैनागम में बताया है कि द्रव्य, गुण और पर्याय - ये तीनों ही जानने योग्य हैं। इनमें परस्पर तादात्म्य नामक अविनाभाव सम्बन्ध बना हुआ है । (विवेकोदय, पृ. 53) गृहस्थावस्था में तो इन शुभोपयोग की बातों का करना ही परम् कर्त्तव्य कहा गया है, क्योंकि गृहस्थ दशा में शुद्धोपयोग का होना सर्वथा असंभव ही है । मुनि के लिए शुभोपयोग गौणरूप है; किन्तु गृहस्थ के लिए तो वही मुख्य रूप कहा गया है । ___ (विवेकोदय, पृ. 150) सम्यक्त्वसार शतक में से उद्धृत वचनामृत 27. दो चीजों के मेल में विकार आये बिना नहीं रहता । अपने सहज क्रमबद्ध परिणमन के स्थान पर व्युत्क्रम को ही अपनाना पड़ता है । 28. है भव्य पुरुषो, निश्चयैकान्त एक ऐसा गहन गृहीत मिथ्यात्व है कि जीव अपने आपको महान् आध्यात्मिक व बौद्धा समझता हुआ भी अमितकाल तक संसार सागर से पार नहीं हो सकता । (पृ. 14) 29. ..... जीव को और देह को एक बतलाया करता है वह व्यवहार नय होता है; किन्तु जो जीव को देह को, कभी भी एक न बताकर सर्वदा भिन्न-भिन्न बतलाता हो वह निश्चय नय है। (पृ. 55)

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