Book Title: Nay Nirupan
Author(s): Shivcharanlal Jain
Publisher: Gyansagar Vagarth Vimarsh Kendra Byavar

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Page 104
________________ 97 आचार्य ज्ञानसागर के वाड्मय में नय-निरूपण नियम-प्रतिज्ञा आदि करके छोड़ना पड़ता है, किन्तु पुण्य के विषय में ऐसा नहीं है । पाप और पुण्य में कर्म सामान्य की अपेक्षा समानता होने पर भी बड़ा अन्तर है । एक ही गति निम्नता की ओर है तो दूसरे की ऊर्खता की ओर ।। निश्चय-व्यवहार निषयक पं. टोडरमलजी का निम्न छन्द उपयोगी है - "कोऊ नय निश्चय सौं आतमा को शुद्ध मानि भये हैं सुछन्द न पिछा. निज शुद्धता । कोऊ व्यवहार जप तप दान शील को ही, आतम को हित मानि छांड़त न मुद्धता ॥ कोऊ व्यवहार नय निश्चय के मारग को भिन्न-भिन्न पहचानि करै निज उद्धता । जब जानैं निश्चय के भेद व्यवहार सब कारण है उपचार मानें तब बुद्धता ॥ __पुरुषार्थ सिद्धियुपाय टीका ॥ पं. पू. आचार्य ज्ञानसागरजी महाराज के नय निरूपणवित्त्व का समुचित मूल्यांकन करना बड़ा ही दुष्कर कार्य है । प्रस्तुत प्रबन्ध तो उनके महत्कार्य की सूचना मात्र ही कहना संगत होगा । उन परम पूत मनीषी के समाज हित में सम्पादित नय विषयक व्याख्यान को हमने अपनी बुद्धि अनुसार स्पष्ट करने मात्र का प्रयत्न किया है । प्रयास यह रहा कि यथासंभव उनके ही वचनों को अधिकाधिक प्रस्तुत किया जाय । पू. आचार्यश्री ने स्वयं व्यवहार-निश्चय की एकात्मता, अविरोध को स्वयं स्पृष्ट किया था । उनकी दृष्टि में निश्चय यदि आवश्यकता है तो व्यवहार आविष्कार, निश्चय शक्ति है तो व्यवहार व्यक्ति, निश्चय फूल है तो व्यवहार कली, निश्चय दृष्टि है तो व्यवहार सृष्टि और निश्चय यदि लक्ष्य है तो व्यवहार पाथेय । उनके विश्लेषण से वस्तुस्वरूप का यथार्थ बोध प्रत्येक अध्येता को होगा । वर्तमान में पं. पू. 108 आचार्यश्री विद्यासागर महाराज महर्षि कुन्दकुन्द के तप-त्यागअध्यात्म की प्रतिरूपता को धारण कर रहे हैं । उनके ही मार्गानुसारी कृपामात्र प्रिय शिष्य पू. 108 मुनिराज श्री सुधासागरजी महाराज असीम वात्सल्य एवं अनुकम्पा के धनी हैं, उन्होंने अपने दादा गुरु प. पू. 108 आचार्य ज्ञानसागरजी महाराज के ज्ञान-गौरव को सम्यक् हृदयंगम करके उसके प्रकाशन और प्रचार आदि का बीड़ा उठाया है । वे अनवरत श्रावकों को इस महान कार्य के सम्पन्न करने हेतु चंचला लक्ष्मी के सदुपयोग करने की प्रेरणा देते रहे हैं। उनकी प्रभावना चतुर्मुखी है । ज्ञान प्रसार हेतु उन्होंने विद्वद्वर्ग की समुचित प्रतिष्ठा करते हुए गोष्ठी, ग्रन्थलेखन, प्रकाशन आदि के महनीय कार्यों को उनसे सम्पादित कराने में भागीरथ के समान प्रयत्न किया है । प्रस्तुत प्रबन्ध भी उनकी ही प्रेरणा से पूरा हो गया। उनके आशीर्वाद से ही यह कार्य मुझसे संभव हो सका । मैं उन्हें अन्तरतम से कोटि-कोटि नमन करता हूँ।

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