Book Title: Nay Nirupan
Author(s): Shivcharanlal Jain
Publisher: Gyansagar Vagarth Vimarsh Kendra Byavar

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Page 94
________________ . 07 87 आचार्य ज्ञानसागर के वाड्मय में नय-निरूपण 38. नय-निरूपण स्थल आचार्य ज्ञानसागर वाङ्मय के कतिपय उपयोगी समझकर यहाँ आदर्श के तौर पर उनके कुछ वाक्यों को उदृधृत कर कर रहा हूँ, ताकि पाठकों को एक दृष्टि में भाव को हृदयंगम करने में सुविधा हो । संभव है कि कतिपय वाक्यों की, पूर्व में आलेख में प्रयुक्त होने के कारण पुनरावृत्ति हो । 1. "हाँ, निश्चय की दृष्टि में व्यवहार अगर गलती पर है तो व्यवहार की दृष्टि में निश्चय भी झूठा है । श्री आचार्य महाराज (कुन्दकुन्द स्वामी) ने तो जगह-जगह दोनों को ही अपने-अपने विषय में उपयोगी बतालाय है। . (विवेकोदय, पृ. 15) 2. निश्चय नय प्रतिषेधक है क्योंकि व्यवहार के बाद में आता है और उसके प्राप्त फिर व्यवहार नहीं रहता । व्यवहार प्रतिषेध्य है निश्चय के नीचे होकर पूर्व में रहता है। (विवेकोदय, पृ. 15) सम्यग्दर्शन श्रद्धागुण की अवस्था है इसलिए वह भी व्यवहार है । मतलब इस सबका यह है कि शुद्धात्मस्वरूप की श्रद्धा को लिए हुए व्यवहार नय का अनुयायी चतुर्थादि गुणस्थानवी जीव व्यवहार सम्यग्दृष्टि होता है; किन्तु स्पष्ट चारित्र-दशा के साथ एकता को स्वीकार किये हुए परम वीतराग आत्मानुभवमग्न जीव जो हो वह निश्चय सम्यग्दृष्टि होता है। __(विवेकोदय, पृ. 18) आपा पर का भेद जहाँ तक भी विचार बना रहे । सम्यग्दर्शन बोध वृत्त के पालन में मन सना रहे ॥ यह तो है व्यवहार और निश्चय नय का है यह बाना । और सभी को भुला आपका अपने में ही लग जाना ॥16॥ . (विवेकोदय, पृ. 21) 5. निश्चय नय का स्वरूप है जो कि साध्य है व्यवहार उसका साधन है साधन के बिना साध्य कहाँ । ............ निश्चय नय सामान्य को ग्रहण करती है तो व्यवहार नय उसके विशेष को एवं दोनों का तादात्म्य है । ......... अत: व्यवहार नय की एकदम उपेक्षा कर देना ठीक नहीं है क्योंकि निश्चय का परिचायक कभी व्यवहार नय ही है। .... फिर भी इस नय का (अशुद्ध निश्चय का) अवलम्बन जबतक बना रहता है तब तक कर्तृकर्म भाव विद्यमान होने से जन्म-मरण रूप संसार से नहीं छूट सकता अपितु इससे भी पार होकर (शुद्धनय के विषय) निर्विकल्परूप शुद्धभाव को अपनाता . है. तभी संसार का उच्छेद कर पाता है। (विवेकोदय, पृ. 25) 6. शुद्ध निश्चय नय की अपेक्षा में तो शुद्ध वीतराग भावों का और अशुद्ध निश्चय नय से शुभ और अशुभ रूप अपने विकार भावों का (आत्मा) कर्ता है किन्तु व्यवहार नय से वही पौद्गलिक कर्मों का भी कर्ता है । (विवेकोदय, पृ. 24)

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