Book Title: Nay Nirupan
Author(s): Shivcharanlal Jain
Publisher: Gyansagar Vagarth Vimarsh Kendra Byavar

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Page 92
________________ आचार्य ज्ञानसागर के वाड्मय में नय-निरूपण 85 और 3. जीव और पुद्गल का यही आगे बताते हैं । पुद्गल का पुद्गल के साथ जो सम्बन्ध होता है, वह उसके स्निग्धत्व और रूक्षत्व रूप स्पर्श को लेकर संस्पर्शात्मक सम्बन्ध होता है । जीव का जीव के साथ में जो सम्बन्ध होता है वह केवल रागद्वेषमय मोहभाव के द्वारा संभावनात्मक सम्बन्ध होता है । यह पति, पत्नी, पिता, पुत्रादिक के रूप में अनेक प्रकार का होता है जीव के साथ कार्माण पुद्गलों का जो सम्बन्ध होता है वह परस्पर संश्लेषात्मक (अन्योन्यप्रवेशण) एकक्षेत्रावगाह रूप होता है । यह दो प्रकार का होता है - 1. परिस्पन्दनरूप योगभाव के द्वारा जीव के प्रदेशों में कर्मवर्गणायें प्रवेश पाती हैं । 2. उस जीव के कषायभाव की तीव्रता और मन्दता को लेकर वे वहाँ पर कर्मरूप में ठहरी रहती हैं । फिर उदयकाल में इस जीव को अपना फल दिखलाती हुई वे आगे के लिए कर्मबन्ध के कारणभूत रागद्वेषभाव को उत्पन्न करके निर्जीण हो जाती हैं । मतलब यह है कि कर्माधीन होकर जबतक रागद्वेष करता रहता है तबतक नूतन कर्मों का बन्ध करता रहता है।" (द्रव्यबन्ध से भावबन्ध और भावबन्ध से द्रव्यबन्ध) उपरोक्त प्रकार बन्धस्वरूप का निरूपण आ. श्री ने किया है यह सभी व्यवहार नय का विषय है । कर्मबन्ध और आत्मा का भेदविज्ञान भी व्यवहार ही है । इसकी उपयोगिता आत्म के शुद्धस्वरूप निश्चय की प्राप्ति पर्यन्त है । बन्ध को काटने से वह नष्ट होगा मात्र जानने से नहीं । आत्मा भिन्न है, कर्म भिन्न है यह ज्ञान तभी सार्थक होगा जब वस्तुतः भिन्न होंगे । निश्चय के एकान्त को पकड़कर भ्रम से वर्तमान कर्मबद्ध अवस्था को अपनी न मानने मात्र से स्वतन्त्रता प्राप्त नहीं हो सकती । प्रत्यक्ष रूप से स्वयं संसारी है कर्मबद्ध पर्याय का धनी है । कर्मबद्ध पर्याय को न मानकर अपने को भ्रम से मुक्त मानकर पुरुषार्थहीन होकर झूठे क्रमबद्ध पर्याय का राग अलापना तो प्रगाढ़ मिथ्यात्व है, गृहीत मिथ्यात्व है। आ. ज्ञानसागरजी की महती कृपा है जो उन्होंने निश्चय-व्यवहार की सापेक्षता रूप अनेकान्त के दर्शन अपने वाङ्मय में पद-पद पर कराये हैं । यतः आचार्य महाराज का नय निरूपण तत्त्वों की गहराई तक हमें ले जाता है अतः नव-तत्त्वों का स्वरूप-सारांश जो उन्होंने हमें दिया उस पर भी दृष्टिपात करना उपयोगी रहेगा । निश्चय नय की अपेक्षा तो सात तत्त्व या नव-पदार्थों का अस्तित्व दृष्टिगत नहीं होता व्यवहार का विषय हैं । निश्चय से तो संसार मोक्ष का सद्भाव ही नहीं है वह तो एक्स-रे के फोटो के समान है जिसमें बाह्य कुछ दिखाई नहीं देता । भले ही स्टुडियो के फोटो के समान व्यवहार का विषय भी वस्तुभूत हो । अस्तु । अब प्रस्तुत है उनका आगमाधारित सारांश, पदार्थों विषयक निरूपण, विवेकोदय पृष्ठ-81 37. सम्यग्दर्शन के विषयभूत नव-पदार्थों का स्वरूप __ "1. जीव - आत्मा चेतनामय सदा (निश्चय से) ज्ञाता पर से भिन्न त्रिकाल स्थायी है । जब वह आत्मोन्मुख निमित्तक परावलम्ब से (व्यवहार से) मुक्त होता है तब शुभभाव और जब आत्मविमुख परपदार्थावलम्बन से युक्त होता है तो अशुभ-भाव करता है किन्तु जब स्वालम्बी बनता है; तो शुद्धभावमय होता है ।

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