Book Title: Nay Nirupan
Author(s): Shivcharanlal Jain
Publisher: Gyansagar Vagarth Vimarsh Kendra Byavar

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Page 90
________________ 83 आचार्य ज्ञानसागर के वाड्मय में नय-निरूपण गाथा नं. 149 का विशेषार्थ - "जीव को बद्ध बताने पर संसारी मात्र का ग्रहण हो सकता है, किन्तु सिद्ध जीव का नहीं" और अबद्ध कहने से जो सिद्ध जीव हैं उन्हीं का ग्रहण हो सकता है उसमें संसारी जीव शेष रह जाते हैं जो कि आत्म-तत्त्व से रहित नहीं है अतः तत्त्वज्ञानी जीवों की दृष्टि में नय प्ररूपण से परे जीव सदा चेतनस्वरूप है ।" पू.आ. विद्यासागरजी महाराज के द्वारा लिखित पद्यानुवाद की निम्न पंक्तियाँ अवलोकनीय "गाता विशुद्धनय जीव सदा जुदा है, दुष्टाष्ट कर्म दल से न कभी बँधा है । संसारी जीव विधि से बँधता, बँधा था, यों भाव-भीनि स्वर में व्यवहार भाता ॥48॥ है पक्षपात यह तो नय नीति सारी, है निर्विकार यह आतम या विकारी । वे वस्तुतः समयसार बने लसे हैं. जो साधु ऊपर उठे नयपक्ष से हैं 149॥" आ. कुन्दकुन्द स्वामी ने गाथा नं. 148 में जीव और कर्म के बंध को दूध और पानी के मेल की भाँति बतलाया है । पञ्चास्तिकाय में स्वर्ण और मिट्टी की भाँति निरूपित किया है । दोनों ही एकमेक हो रहे हैं । भले ही यह व्यवहार नय का वक्तव्य है, पर वर्तमान यथार्थ की पृष्ठभूमि पर है । अमूर्तिक आत्मामूर्तिक कर्मों से कैसे बँधता है इस विषय में आ. ज्ञानसागरजी महाराज के प्रवचनसार में उल्लिखित संस्कृत व हिन्दी पद्यानुवादरूप निम्न वचन प्रयोजनीय है - मूर्तिमान् पुद्गलः स्पर्शरेति बन्ध परेण सह । कुतोऽन्यथा स्वभावोऽयं कर्म बध्नाति चेतनः ॥ज्ञेयाधिकार 81॥ आत्मसात् कुरुते रूपादीनि ज्ञानेन चेतनः । बालः क्रीडनकेनेव तेन बन्धमुपैति सः ॥82॥ रूपी जो पुद्गल अपने रूक्षादि गुणों से बन्ध धरे । किन्तु अरूपी चेतन में क्यों बन्ध कथा अवकाश करे ॥ तो इसका उत्तर कि जीव यह रूपादिकमय भाव धरे । अपने इसीलिए तन्मय हो बन्ध सदा स्वीकार करे ॥ - यहाँ आचार्यश्री ने स्पष्ट किया है कि जैसे ज्ञान से आत्मा रूपादिक को जानता हुआ उन्हें आत्मसात् कर लेता है उसी प्रकार जीवबन्ध को प्राप्त कर लेता है । आचार्य

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