Book Title: Nay Nirupan
Author(s): Shivcharanlal Jain
Publisher: Gyansagar Vagarth Vimarsh Kendra Byavar

View full book text
Previous | Next

Page 31
________________ 24 आचार्य ज्ञानसागर के वाड्मय में नय-निरूपण आलम्बन्तां समितिपरतां ते यतोऽद्यापि पापाः । आत्मानात्मावगमविरहात् सन्ति सम्यक्त्वरिक्ताः ॥ - स. कलश 137॥ - जो स्वयं अपने को सम्यदृष्टि मानते हैं और कहते हैं कि मेरे क्वचित् कदाचित् बन्ध नहीं होता और अभिमान से मुँह फुलाये हैं साक्षात् राग का आचरण कर रहे हैं । (गृहस्थ की बात ही क्या) वे मुनि भी हों और समितियों के पालन से आलंबित हों फिर भी पापी हैं उन्हें आत्मा-अनात्मा के भेद विज्ञान की प्राप्ति नहीं है और वे सम्यक्त्व से शून्य हैं । स्पष्ट है कि सराग अवस्था में निश्चय-सम्यक्त्व नहीं है वह तो 11-12 गुणस्थान में ही संभव है आचार्य कुन्दकुन्द ने समयसार में कहा ही है - परमाणुमित्तयंपि हु रागादीणं दु विज्जते जस्स । णवि सो जाणदि अप्पाणं तु सव्वागमधरो वि ॥211॥ अप्पाणमयाणंतो अणप्पयं चावि सो अयाणंतो । कह होदि सम्मदिट्ठी जीवा जीवे अयाणंतो ॥212॥ . . अर्थात् परमाणुमात्र भी रागी को सम्यक्त्व नहीं है । निश्चय-सम्यक्त्व वीतराग चारित्र का अविनाभावी है। स्पष्ट है कि आचार्य ज्ञानसागरजी महाराज का निरूपण पूर्णरूप से आगमानुकूल है। वे कहीं भी शिथिल दृष्टिगत नहीं होते । साथ ही वे जनहिताकांक्षा से सर्वत्र ओतप्रोत ही स्पष्ट रूप से प्रतीत होते हैं । . 14. व्यवहार - निश्चय-मोक्षमाग जैनधर्म में सम्यग्दर्शन-ज्ञान-चारित्र की एकता को मोक्षमाग कहा गया है । यह रत्नत्रय भी व्यवहार और निश्चय के भेद से दो प्रकार है । आचार्य अमृतचन्द्रजी की तत्वार्थसार में यह निम्न उक्ति ज्ञातव्य है, निश्चयव्यवहाराभ्यां मोक्षमार्गो द्विधास्थितः । तत्राद्यः साध्यरूपः स्याद् द्वितीयस्तस्यसाधनः ॥ - तत्वार्थसार उपसंहार-2 ॥ - मोक्षमार्ग निश्चय और व्यवहार दो प्रकार का है उसमें निश्चय साध्य है एवं व्यवहार उसका साधन है । विवेकोदय में आचार्य ज्ञानसागरजी ने इस विषय में श्रोताओं को सम्यक् भाव हृदयंगम कराने हेतु एवं भ्रान्ति और एकान्त निवारण हेतु सविस्तार निरूपित किया है यहाँ हम अपेक्षित प्रकरण को उद्धृत कर रहे हैं। (पृष्ठ 84 से प्रकरण प्रारम्भ है) "(हृदय-ज्ञान-चारित्र) भिन्न रत्नत्रय और अभिन्न रत्नत्रय कहे जाकर व्यवहार और निश्चय-मोक्षमार्ग नाम से पुकारे जाते हैं ।

Loading...

Page Navigation
1 ... 29 30 31 32 33 34 35 36 37 38 39 40 41 42 43 44 45 46 47 48 49 50 51 52 53 54 55 56 57 58 59 60 61 62 63 64 65 66 67 68 69 70 71 72 73 74 75 76 77 78 79 80 81 82 83 84 85 86 87 88 89 90 91 92 93 94 95 96 97 98 99 100 101 102 103 104 105 106