Book Title: Nay Nirupan
Author(s): Shivcharanlal Jain
Publisher: Gyansagar Vagarth Vimarsh Kendra Byavar

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Page 43
________________ 36 आचार्य ज्ञानसागर के वाड्मय में नय-निरूपण एक नय की (निश्चय की) दृष्टि से आत्मा एक है किन्तु व्यवहार नय की दृष्टि से एक नहीं है अनेक है आत्मा के विषय में दो नयों का यह पक्षपात है । जो तत्त्ववेदी है वह पक्षपात से रहित है उसके लिए तो आत्मा आत्मा ही है । चाहे एक रूप में हो चाहे अनेकों रूपों में । अभेद रूप में हो या भेद रूप में हो । 18. सरस्वती मूर्ति से अनुयोग सिद्धि आचार्य ज्ञानसागरजी कवित्व शक्ति के कीर्तिमान् थे । पदार्थ में छिपी हुई प्रतिभा एवं वस्तुस्वरूप ज्ञायकता को वे सहज में ही ग्रहण कर लेते थे । लोक में सरस्वती की जो प्रतिमा मान्य है उसके चार हाथ हैं । एक में वीणा, दूसरे में पुस्तक, तीसरे में माला और चौथा हाथ गोद के मध्य में हैं । आचार्य ज्ञानसागर ने चारों भुजाओं को चारों अनुयोगों की रूपक व्यक्त किया है । वीणा से प्रथमानुयोग, पुस्तक से करणानुयोग, माला से चरणानुयोग एवं गोद में रखने से द्रव्यानुयोग । चारों ही अनुयोग दोनों नयों निश्चय-व्यवहार के द्वारा वर्णित हैं अनेकान्त मय हैं । आचार्य अमृतचन्द्रजी ने भी सरस्वती जिनवाणी को अनेकान्त की मूर्ति घोषित किया है यथा - अनन्तधर्मणस्तत्त्वं पश्यन्ती प्रत्यगात्मनः । अनेकान्तमयीमूर्तिनित्यमेव प्रकाशताम् ॥समयसार-2॥ उक्त सरस्वती मूर्ति से अनेकान्त निरूपण, अनुयोगों की सिद्धि जयोदय सर्ग 19 में श्लोक 25 से 28 तक दृष्टव्य है । विस्तार भय से संकेत मात्र किया है । ___19. वीरोदय महाकाव्य वीरोदय आचार्य ज्ञानसागरजी महाराज का प्रसिद्ध महाकाव्य है इस सम्बन्ध में पू. आचार्य विद्यासागरजी के शिष्य एवं पू. आचार्य ज्ञानसागरजी महाराज के प्रशिष्य पू. मुनिराज सुधासागरजी महाराज के पावन सान्निध्य में वृहद् गोष्ठी सम्पन्न हो चुकी है । वीरोदय में विभिन्न प्रकार के उपयोगी विषयों का समावेश आ. श्री ने बड़ी सूझ-बूझ से यथास्थान किया है । इसमें उन्होंने संक्षेप में निश्चय-व्यवहार एवं अनेकान्त को प्रस्तुत किया है ।। मंगलाचरण की परस्परा में भगवान महावीर के गुणों की स्तुति करते हुए वे कहते वीर ! त्वमानन्दभुवामवीरः मीरो गुणानां जगताममीरः । एकोऽपि सम्पातितभामनेक-लोकाननेकान्तमतेन नेक ॥ - सर्ग 1-5 - हे वीर, तुम आनन्द की भूमि होकर भी अवीर हो और गुणों के मीर होकर भी जगत के अमीर हो । हे नेक (भद्र) तुम अकेले ने ही एक होकर भी अनेकांत मत से अनेक लोगों को (परस्पर विरोधियों को) एकता के सूत्र में सम्बद्ध कर दिया है । यहाँ

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